• २०८० जेठ १४ आइतबार

जब हम दूर होते हैं

बसन्त चौधरी

बसन्त चौधरी

कहीं मिले थे
संयोग से दिल मिले
पता ही न चला क्या हुआ ? कैसे हुआ !
तुम्हें जरा भी चोट लगने पर दर्द मुझे होने लगा
तुम्हारे खुश होने पर मैं तुमसे ज्यादा खुश होने लगा
इस तरह तुम हौर मैं एक होने लगे !

अब तो बहुत कम समय बाकी है हमें अलग होने में
क्योंकि हम दोराहे पर आ कर रूक गए हैं
कुछ ही देर में हो जाएंगे एक दूसरे से अलग
एक दूसरे को मन में बसाकर !

पूछने का मन कर रहा है –
संसार के व्यस्त समय के किसी पल में
जब तुम मुझसे कोसों दूर रहोगी
दूर बहुत दूर, किसी अंजान जगह पे
तो क्या याद रखोगी मुझे,
दिल के किसी कोने को छूते हुए ?
पूछोगी मेरा हाल, लोगी मेरी खबर,
आकाश की चाँदनी से ?
याद करके क्या तडपोगी कभी
या मेरे चुम्बन को याद करके हँसोगी ?

जब तुम मुझसे दूर रहोगी
हाथ में हाथ डाले, देखे हुए दूर गगन के चाँद
नदी के किनार बैठ
धीरे – धीरे पानी में उतारे गए वो कदम
अतृप्त हारे पल एक दूसरे को घंटो निहारते रहना
क्या याद आएंगे, क्या तुम पढ पाओगी मेरी आँखों की भाषा ?
यादों की एक किताब जो प्रेम के नाम लिखी गई है ।

क्या कभी तुम मुझे याद करके तडपोगी ?
वियोग के श्मसान में आँसू बहाकर
मेरी यादों के जनाजे पर फूल चढाकर
या करके कोई शिकवा शिकायत !

पूछना चाहता हूँ–जब तुम मुझसे बहुत दूर रहोगी
तब मुझे क्या याद करोगी ?
एक दूसरे के लिए धडके हुए दिल की धडकन
क्या सुन पाओगी ?
दिल में एक दूसरे को बसाकर अलग हो जाने के लिए
जब हम तैयार हुए, वह समय बहुत कष्टप्रय था
दुःखद था, दूर–दूर तक अंधेरा नजर आता था
दो पहाड नजर आते थे, दूरबहुत दूर!

मेरी हालतों को याद करके तडपोगी ?
किसी शून्य शाम में अनायास हँस पडोगी ?
कि बातें करोगी मेरी यादों से ?
अपनी तन्हाई में ? भींगकर यादों की झडी में
कि चुमोगी मेरे आँसुओं को ‘मैं’ समझकर !

जब तुम मुझसे दूर रहोगी
अगर मुझसे पूछती हो, तो मैं कहता हूँ–
सुनों–मैं मरने के बाद भी तुम्हें नहीं भूल सकूँगा ।
जितनी दूर चली गई हो मुझे लगता है दैहिक दूरी का वो क्षण
वियोग साक्षात् मात्र संयोग है !
इसका कोई अर्थ नहीं है प्रेम तो अलौकिक है
शाश्वत है वियोग तो नियति है !

प्रेम ही एक ऐसा अलौकिक प्रान्त है
जहाँ हम जन्म जन्म तक एक साथ जी सकते हैं !

साभार: चाहतों के साये मेंं


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(चौधरी विशिष्ट साहित्यकार हैं ।)