• २०८१ कातिर्क २३ शुक्रबार

पंख बिना का प्रेम

बसन्त चौधरी

बसन्त चौधरी

तुम एक थी, मैं एक था,
आकाश एक ही था ।
लगता था इन सभी के मिलने से
एक सपना बना हमारा प्रेम
पंख बिना ही उड गया अनन्त आकाश ढूंढने !

लगता था ब्रह्माण्ड ही थम–सा गया है
प्रेम के गीतों में घुलकर हमारे दिल का छूने के लिए !
अंकमाल में ही हमने सालों बिताए
सूरज, चाँद, तारे यावत नक्षत्र होकर उदित हुए !
हमने साथ–साथ जीने–मरने की कसमें खायीं
जीवन की अनेक खुशियों को अपना बनाया ।

अब जब तुम नहीं हो, आकाश शून्य हो गया है
मैं शून्य हो गया हूँ
चारो तरफ से घिर गया हूँ शून्यता में, अधेरी गुफा में कैद हो गया हूँ !

ऐसा लगता है किसी ऊँचे शिखर से
ढिलमिलाता गिर गया हूँ नीचे सिसिफस के पत्थर की तरह
जीवन के आखिरी पल की तरह
शून्य में विलय हो जाने की तरह !

ये असंख्य शून्यता देती है सिर्फ व्यर्थता
क्योंकि शून्य को अर्थ देने के लिए
शून्य से पहले जरूरत होती है किसी ‘एक’ की
और मेरे जीवन में अब वह एक नहीं है !

इसलिए मैं व्यर्थ हूँ
विराटता पाकर भी शून्य की तरह निरर्थक हूँ !

साभार: चाहतों के साये मेंं


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(चौधरी विशिष्ट साहित्यकार हैं ।)