• २०८१ कातिर्क २१ बुधबार

स्मृति में तुम

बसन्त चौधरी

बसन्त चौधरी

मैं इस सुनसान पगडंडी में तुम्हारे कदमों के निशान ढूँढ रहा हूँ
तुम्हारे ऊपर शक करते हुए अंजाने में अपनी गलतियाँ ढूँढ रहा हूँ
संकीर्णता के बंधन से खुद को मुक्त कर रहा हूँ ।

एक अकिंचन शहर की तरह कई बार तोडा है, बनाया है
हमारे प्रेम को इस निष्ठुर समय ने ।
मगर, लाख नवीकरण करते रहने के बावजुद
हर वक्त समय खत्म होते रहने वाले लाइसेन्स की तरह
हमारे बीच का संबंध कभी भी खत्म नहीं हुआ ।
तुम सीमा के उस पार, मैं सीमा के इस पार
फिर भी हम एक ही हैं भूगोल की तरह
हमारा संबंध कभी नहीं  मिटा !

सपनों की तरह कोई ढक नहीं सकता
रोक नहीं सकता आने से अनुभूति की गहराई को
तुम्हारी हमारी अभिन्नता को कौन अलग कर पाएगा भला ?
तुम्हारे आगोश की गरमाहट को कैसे कोई चुरा सकता है ?
क्योंकि मुझे मालूम है उसकी गरमी आग से बढकर है
निश्चित मैं मिलने के बाद बिछडने
और बिछडकर फिर मिलने के लिए उसी दोराहे पर
तुम्हें ढूँढ रहा हूँ !

हमसे छीन लिए गए कदमों के निशान को
यादों में संजोकर तुम्हारे साथ एक सुर में बंधा चला रहा हूँ
तुम्हारे वजूद को अनन्त- अनन्त के लिए
अपनी धमनियों में बहने वाले
रक्त के कण कण में भरता जा रहा हूँ ।

साभार: चाहतों के साये में


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(चौधरी विशिष्ट साहित्यकार हैं ।)