• २०८० जेठ २१ आइतबार

मैं

बसन्त चौधरी

बसन्त चौधरी

नही जानता मैं
कि ये कोई उलझन थी
कोई असमंजस था
किसी प्रकार की उधेडबुन
या अचेतन अवस्था थी
नहीं जानता मैं ।
हाँ ! इतना जरूर जानता हूँ कि
मैं विचलित नहीं था
और यह भी कि
पथभ्रष्ट तो कतई नहीं था
किसी अवचेतन अवस्था की पीर
मेरे मस्तिष्क पर छायी थी
परन्तु यह नींद नहीं थी ।

इसी अवचेतनावस्था में
खुद को खोजता हुआ
सोचता हूँ कि क्या
मैं दबा हुआ था
अपने कर्मों या अपने स्वार्थों के
या सांसारिकता के मोह तले ?
नहीं ! नहीं !!
शायद यह भी सच नहीं
तो क्या मैं और मेरी आत्मा
दब चुके थे,
भावनाओं का दफन कर
ज्ञान के भारी बोझ तले
गहरे कहीं बहुत गहरे ?

या फिर सिमट चुके थे
अहंकार की खोल में,
सामाजिकता की लाज में,
और मैं बन्द हो गया था
उस कछुए की भाँति
जो जरा सी आहट पर
खुद को कैद कर लेता है
अपने कठोर कवच के भीतर
शायद यह सच था,
फिर आज गुजरे वक्त के साथ
ये कैसी कशमकश
क्यों आज मेरी बन्द आँखें
खुलना चाह रही हैं
तब, जब थका और बोझिल वक्त
खींच रहा है अपनी ओर
आँखें कई तस्वीरों को
कैद किये बन्द हो जाना चाहती हैं
आखिर क्यों खुलना चाहती हैं
वर्षों से बन्द आँखें इस वक्त ??

साभार: अनेक पल और मैं


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(चौधरी विशिष्ट साहित्यकार हैं ।)