• २०८१ माघ २७ आइतबार

प्रेम की अद्भुत परिभाषा ‘उर्वशी’

डा श्वेता दीप्ति

डा श्वेता दीप्ति

‘पहले प्रेम स्पर्ष होता है, तदन्तर चिन्तन भी।
प्रणय प्रथम मिट्टी कठोर है, तब वायव्य गगन भी।’
प्रेम एक व्यापक और विशाल मनोवृत्ति है। इसे मनोरंजन की संकीर्ण धारा के रुप में नहीं देखा जाना चाहिए। प्रेम में मानवता के सत्य का शाश्वत स्पन्दन होता है प्रेम क्षणिक हो ही नहीं सकता। वह स्थिर निस्सीम और चिरंतन होता है। प्रेम में मात्र पाने का ही सत्य नहीं होता, वरन उसमें त्याग तथा दूसरों को प्रसन्नता प्रदान करने का भाव भी रहता है। इसी कारण से उसे शाश्वत कहा गया है और यही कारण है कि प्रेम की सीमा मृत्यु की सीमा से भी परे होती है।

उर्वशी की भूमिका में दिनकर जी लिखते हैं – पुरुरवा और उर्वशी का प्रेम मात्र शरीर के धरातल पर नहीं रुकता, वह शरीर से जन्म लेकर मन और प्राण के गहन, गुह्य लोकों में प्रवेश करता है। रस के भौतिक आधार से उठकर रहस्य और आत्मा के अन्तरिक्ष में विचरण करता है। दिनकरजी की प्रेम सम्बधी अवधारणा में गहरी दार्शनिकता है।
पुरुष प्रेम सतत करता है, पर, प्रायः, थोड़ा-थोड़ा,
नारी प्रेम बहुत करती है, सच है, लेकिन, कभी-कभी।
दिनकर ने जहां ओज, आवेग और राष्ट्रीय अस्मिता के कवि के रूप में अपनी पहचान बनायी, वहीं प्रेम और श्रृंगार के सर्वाधिक लोकप्रिय काव्यऔ ‘उर्वशी’ की रचना करने श्रेय भी हासिल किया. हिंदी की काव्याधारा में प्रांरभ से ही प्रेम की अप्रतिम प्रतिष्ठा रही है. लौकिक और अलौकिक प्रेम की अभिव्यक्तियों से हिंदी का समूचा रचना जगत आच्छादित है ।

दिनकर जी ने कालिदास की ‘विक्रमोर्वशीयम्‌’ और रवीन्द्रनाथ ठाकुर की रचना ‘उर्वशी’ पढ़ी थी। इनमें प्रेम और कामाकर्षण की कथा है। आगे चलकर उन्होंने महर्षि अरविन्द की उर्वशी पढ़ी। इसमें उन्हें इसका एक आध्यात्मिक पक्ष भी दिखलाई पड़ा। दिनकर के ‘उर्वशी’ में इन रचनाओं का दुहराव नहीं है। दिनकर के रचना में बीसवीं शताब्दी के पुरूरवा और उर्वशी हैं, जिन्हें क्रमशः सनातन नर और नारी का प्रतीक माना जा सकता है। इसमें एक द्वन्द्व चलता रहता है। पुरूरवा पूछता है,

रूप की आराधना का मार्ग आलिंगन नहीं, तो और क्या है?
स्नेह का सौंदर्य को उपहार रस-चुंबन नहीं, तो और क्या है?
‘उर्वशी’ में पुरुष और स्त्री के बीच प्राकृतिक आकर्षण, काम-भावना के कारण उत्पन्न प्रेम और फिर इस प्रेम के विस्तार को मापने की कोशिश की गई है। काम का ललित पक्ष प्रेम है और प्रेम संतानोत्पादन के साथ-साथ आनंद का उत्कर्ष भी है। वह शारीरिक होने के साथ-साथ रहस्यवादी अनुभूति भी है। प्रेम का यह पक्ष कवि को अपनी ओर खींचता है। एक आत्मा से दूसरी आत्मा का गहन संपर्क अध्यात्म की भूमिका बन सकता है, यह उर्वशी काव्य का गुणीभूत व्यंग्य है।

प्रेम को प्राप्त करने के लिए पुरुरवा एक साधारण पुरुष बन जाता है जो किसी भी हाल में उर्वशी को प्राप्त करना चाहता है । स्वयं को सूर्य कहने वाला पुरुरवा नारी कदमों में बिछ जाने को आतुर है
मैं तुम्हारे बाण का बींधा हुआ खग, वक्ष पर धर शीश मरना चाहता हूँ
मैं तुम्हारे हाथ का लीला कमल हूँ, प्राण के सर में उतरना चाहता हूँ .

उर्वशी प्रेम की अतल गहराई का अनुसंधान करती हुई रचना है। ‘उर्वशी’ में यह प्रेम शारीरिक आकर्षण से कहीं आगे जाता है। यह प्रेम की अतीन्द्रियता का आख्यान है और यही आख्यान उसका आध्यात्मिक पक्ष है। फिर भी हम पाते हैं कि ‘उर्वशी’ में प्रेम के ऐंद्रिय पक्ष भी स्पष्ट हैं, पुरूरवा की उक्ति देखिए,

फिर अधर-पुट खोजने लगते अधर को कामना छूकर त्वचा को फिर जगाती है।
रेंगने लगते सहस्रों सांप सोने के रूधिर में,चेतना रस की लहर में डूब जाती है।
रूप के सौन्दर्य, प्रेम और श्रृंगार की अनुभूतियों की खुली अभिव्यक्ति ‘उर्वशी’ में मिलती है। इसपर भारी साहित्यिक विवाद भी हुआ। उस समय की प्रसिद्ध पत्रिका ‘कल्पना’ में यह विवाद काफ़ी दिनों तक चलता रहा। मुक्तिबोध ने तो यहां तक कहा कि कवि कामात्मक मनोरति और संवेदनाओं में डूबना-उतराना चाहते हैं, साथ ही इस गतिविधि को सांस्कृतिक-आध्यात्मिक श्रेष्ठत्व का प्रतिपादन करना चाहते हैं। डॉ. नामवर सिंह ने भी इस पर सहमति जताई। लेकिन जब हम ‘उर्वशी’ को पढ़ते हुए दिनकर जी की पहली रचनाओं को ध्यान में रखते हैं तो पाते हैं कि दिनकर जी की प्रत्येक घटना या मनोभाव अथवा अनुभूति के सांस्कृतिक पक्ष पर यह आरोप असंगत और अन्यायपूर्ण है कि ‘कामात्मक मनोरति और संवेदनाओं में डूबना-उतराना चाहते हैं’।

‘उर्वशी’ में प्रेम को एक बोधात्मक विषय के रूप में स्वीकार किया गया है और उसे भारतीय ढ़ंग मे उन्नयन के सहारे ‘वासना’ से दर्शन तक पहुंचाया गया है –
पहले प्रेम स्पर्ष होता है, तदन्तर चिन्तन भी।
प्रणय प्रथम मिट्टी कठोर है, तब वायव्य गगन भी।
इसलिए दिनकर की उर्वशी एक ओर अपार्थिव सौंदर्य का पार्थिव संस्करण है, तो दूसरी ओर पार्थिव सौंदर्य (नारी) का अपार्थिव उन्नयन भी। बहुत ही सहज भाव से सीधी सी परिभाषा भी कवि ने दी है प्रेम की
कहते है, धरती पर सब रोगों से कठिन प्रणय है
लगता है यह जिसे, उसे फिर नीन्द नही आती है
दिवस रुदन में, रात आह भरने में कट जाती है
मन खोया-खोया, आंखें कुछ भरी-भरी रहती है
भींगी पुतली में कोई तस्वीर खडी रहती है ।
जी यही तो प्रेम है जो साधारण भी है और असाधारण भी । उर्वशी दिनकर द्वारा रचित प्रेम की अद्भुत परिकल्पना है जो कटु आलोचनाओं के बाद भी हिन्दी साहित्य की अमूल्य धरोहर है ।


(डा. श्वेता दीप्ति त्रिभुवन विश्वविद्यालय में हिन्दी साहित्य की उप-प्राध्यापक हैँ)
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