कविता–हिन्दी

वर्फ- पोश हिमालय के आगोश में
सब्ज- पोश पहाडों से घिरा चारो ओर
एक फिरदौस-ए-गुमसुदा
ए है वादी-ए-काठमाण्डूू
मेरा शहर ।
शहर के नुक्कड, गलियाँ और चौराहें
सजे हैं मंदिरों और स्तुपों से
देवालय की ‘टुनाल’ से रक्स करती निकली है
‘नेवार’ तहजीब के संगमरमरी ‘राजामती’
पहाडों में बहती ठंडी हवा
कस्तूरी सा तैरती महक
लम्हा-ब-लम्हा रंगते बदलती
हिमालय की वर्फिली चोटियां
अब्र से आँख मिचौली करती
जादू बिखेरती नजर-कश नजारा
ए है वादी-ए-कोहसार की दुल्हन
काठमाण्डूू एक जन्नत ।
कोहरे का दामन ओढे
उनींद से अलसाए घाटी
दिन चढने के साथ साथ
सियासी और तेजारती सरगर्मियां
सैलाव के तरह नशेब-ओ-फराज होता
मशीनी लोग, बे-नूर चेहरा
बेतहासा भागते होते हैं
खूदगर्जी के जनून में
किसी भूतिया शहर में
भटकती रूह की तरह ।
दिन ढलने लगता है जब
दिन भर के भटकन से टुटे जज्बातों को
असबाव के तरह समेट कर
थकाहारा अभिमान
अपने अपने घरौंदे को लौटता है
जानते हुए कल फिर यही होना है
फिर भी कोई कमाल की उम्मीद में
सुबह होने का
इन्ताजार रहता है बेसब्री से ।
यहाँ सडकों को नींद नहीं आती
दिन रात दौडती रहती है
रात होते होते
दुसरा काठमाण्डूू जागता है
इन्सानी तहजीब का
आदिम तिजारती धन्दा
संगमरमरी बाजूओं और सीनों की दुकानें
बदस्तुर खुलती है
गली, नुक्कड और ‘चोक’ में
जिस्म, सुरत, सीरत, सियासत
झूठ, सच, जज्बात
हर चीज गाजर मूली के तरह
बिकती है यहाँ
सट्टा बाजारी, जुआरी, सियासी रहबर
सफेद-पोश, अफसरान, व्यापारी, दानिशदाँ सभी
बेबसी और इफलास का फायदा उठाने आते हैं
और दुसरे दिन
जुल्मत- अफ्शाँ, पाकीजगी और सदाकत पर
बे- गैरत हो कर
बज्म में तकरीर करते हैं
ए है मेरा शहर
जन्नत-ए-काठमाण्डूू
एक दोजख फिरदौस के आगोश में
जैसे बसते है इन्सान के भीतर
खुदा और हैवान
दोनो का तवाजुन रखना
किस का है काम ?
(जोशी चर्चित साहित्यकार हैं ।)
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