• २०८२ आश्विन ३१, शुक्रबार

रैन बसेरा

राकेश मिश्र

राकेश मिश्र

शहर के व्यस्ततम फ्लाई ओवर के नीचे
चाट अण्डा मूँगफली ठेलों की महक और
चौतरफा ट्रैफ़िक शोर के बीच
शाम को साढ़े आठ बजे ही सो गए थे
रैन बसेरे में तीन मज़दूर
शहर घर पहुँचने की जद्दोजहज में था
उनकी गहरी नींद योजन पार कर चुकी थी
एक पीठ के बल हाथों को फैलाए
खुले मुँह खर्राटे ले रहा था
दूसरे के दोनों हाथ पेट पर थे
तीसरे ने भींच रखी थी रज़ाई
मैंने पढ़ रखा है
रात के इस हिस्से की नींद
स्वप्न विहीन होती है
इसीलिए साधु और कवि
नहीं सोते रात के प्रथम प्रहर में
बल्ब की टिमटिमाती रोशनी में
राजसी विस्तर जैसे दिखते हैं
रैन बसेरे में करीने से बिछे गद्दे
पायताने रखी रज़ाइयां
इनमें राजाओं को दुर्लभ
नींद की सम्भावना है
बस सोने वाले के पास
कोई घर नहीं होना चाहिए
सुबह को काम पर जाते
रात को ट्रेन की प्रतीक्षा करते
दूर शहर से गाँव लौटते और
मेहमानों के आने पर
दोस्त के यहाँ सोने के
बहाने से निकले लोग
सभी आते है यहाँ
सुगंधित नींद की तलाश में
सर्दियों के बीत जाने पर
रैन बसेरों के बाशिंदे
जब गुजरेंगे इस शहर से तो
क्या इन्हें याद आएँगे
ये रैन बसेरे और
इनकी स्वप्न विहीन नींद
एक ही शहर के
अलग अलग रैन बसेरों में
रात गुज़ारने वाले लोग
क्या बता पाएँगे अगले साल कि
किस रैन बसेरे में आयी थी
सबसे अच्छी नींद  ?


(प्रशासनिक अधिकारी, लखनऊ, उत्तरप्रदेश, भारत)
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काराकस

गजल

म कमजोर छु