• २०८१ मंसिर २८ शुक्रबार

मउगा चच्चा

सुमन सिंह

सुमन सिंह

‘ए आजी ! कृष्णा चच्चा क का हाल ह हो ?’ बियाह के बाद पहिली बेर हम अपने गाँवें गईल रहलीं । कुल बचपन के संगी-साथी, गइया-बछिया, नौकर-चाकर, मास्टर- मुंशी जी, अड़ोस-पड़ोस सबके बारे में पूछ घले रहलीं कि एकाएक हमके कृष्णा चच्चा क याद आईल । ‘के मउगा ? ठीके न होई । कुल खेत-बारी बेचाय गयल । घर-मकान दर-दयाद हड़प लिहलन अब त खइले बिना मरत होई । हम तो ओह टोला जइबे ना करी ला जे जानी ।’ आजी पाहुर गिन के नाउन के देत रहलीं बयना बांटे के ।

‘कृष्णा चच्चा के घरे भी त जायी न पाहुर कि ना ?’ आजी जब कुल दयादी-पटीदारी गिन घलीं बाकिर कृष्णा चच्चा क नाम ना लिहलीं त हम पुछलीं । ‘अब के ओ मउगा घरे से नेवता-हँकारी करी ए बचिया । तोहार बाबा-पापा खिसियाए लगेलन । नाउन पाहुर क परात ढाँपत कहलीं । ‘ऊ काहें ?’ हमरे अचरज क ठेकाना ना रहे ।

‘अब आयल हऊ सादी के बाद पहिली बेर त आराम से हफ्ता- दस दिन रहा ए बाची । टोला-मुहल्ला घूम-फिर आवा । धीरे- धीरे कुल पता चल जायी ।’ कह के नाउन चल गइलीं । बाकिर हमार बेचैनी बढ़त चल गईल । दुआरे गइलीं बाबा के लग्गेत गाँव भर क कुल हाल समाचार होखे लागल त हम डेराते-डेरात कृष्णा चच्चा के बारे में पूछ बैठलीं । चच्चा क नाम सुनते बाबा हंसे लगलन- ‘का रे बचिया अब मउगे रह-गयल ह हाल-समाचार जाने बदे ?’ बाबा क हंसी से हमार साहस बढ़ल ।

‘काहें उनके सब मउगा-मउगा कहे ला हो बाबा । हमहन क त बचपने ले देखत हईं जा कि उ बहुते नीक, सीधा- सादा अदिमी हउवन, सबकर मदद करे वाला ।’  हमार अचरज बेअसर रहे बाबा पर । ‘ससुर ऊ पहिले आपन मदद करें तब दोसरे क करीहन । उनके मउगिन में बइठ के गलचउरा करे में मजा न आवत रहे।जब कुल घर-दुआर खेत-बारी लुटा-पटा गयल तब आँख खुलल । मारा …एकदम से मुहचोर न ह ससुरा ।’ बाबा क नफरत जस-जस बढ़े तस-तस कृष्णा चच्चा खातिर गारी निकले उनके मुंह से । हमके ई कुल सुन ना जात रहे । हम उँहा से उठ के फिर अँगना में आ गइलीं । एक -एक कर के गाँवे क कुल चाची-ताई, फुआ-बहिन सब मिले-भेंटे आईल अउर चल गईल । दू दिन ले त बहुत मनसायन रहे फिर बाद में घर सूना लगे लगल । आजी एक्के बतिया फेंटे-

‘ओहिजा नीक से हई न, पाहून मान-जान करे लं न । सास-ससुर माने लं लोग न ।’ खात-बनावत, सुतत-उठत उनकर इहे कुल सवाल क जवाब देत-देत हम उबजियाय गईल रहलीं बाकिर संकोचन ना कह पायीं कि काहें एक्के बतिया बार-बार फेंटत हऊ । आजियो के गाँव घुमले तीन दिन बीत गयल रहे, उहो संकोचन ना कह पावत रहलीं त हमहीं कहलीं – ‘ए आजी ! जगदीश बो आजी क का हाल-चाल ह ?’ ‘ठीके ह ए बाची,कहले रहलीं ह सखी कि बचिया आयी त ओके लियाय के अइहा ।’ आजी क खुसी क ठेकान न रहे ।

‘त चला, हमरो मन करत ह उनसे मिले क ।’ हमहूँ आजिए नियन खुस रहलीं । ‘नाही ए बाची । पहिली बेर आयल हऊ हमरे इँहा, कुल भूत कय दिहन स त तोहरे ससुरे वालन के का जबाब देब जा हमहन के । ‘आजी क बात सुनके हमके हंसी आ गईल ।

‘काहें भूत करिहन । ऊ त तोहार सखी हईं न बचपन क । बतावा ऐसे बढ़िया केकर किस्मत होई कि बचपन से लेके बुढ़ापा तक सखी बने के मिले । एक्के गाँव में पैदा होके, एक्के गाँव में बियाह हो जाय ऐसे नीक बात का होई । कुल्ह चीजुईए क सुविधा । दुःख में, सुख में । इँहा तक कि केहू क कुचुराई बतियावे में सखी से ढेर नीक के संगी होई ए आजी ।’ आजी प हमरे हंसी-मजाक क ढ़ेर असर ना पड़ल । ऊ भूत के डर से हमके घरे से बहरे ना निकलें दें । इँहा तक कि अपने दयादी- पाटीदार में भी ना जाए दें । जवन घर-आँगन बचपन में हंसे-खेले क ठिकाना रहे उहे अब बन्दीगृह नियन लागे लगल ।

साँझ ले त दुआरे बइठ के सबके आवत-जात देखत, नमस्कार-प्रणाम करत बीत जाय बाकिर अन्हार होते- होत मन उदास हो जाय । गाँव में रात भर बिजली ना रहे । अन्हारे केहुतरे डिबरी- लालटेन बार के खाना बने अउर खायल जाय । आठ बजत-बजत गाँव भर में सोता पड़ जाय । अबही हम सोचबे करीं कि नीद आयी कि ना, आजी लगें नाक बजावे । घर- दुआर सब सन्नाटा हो जाय त हमार मन अपने बचपन ओरी लौट जाय ।

बचपन से लेके शादी से पहिले हर गर्मी क छुट्टी हमहन क अपने गाँवे में बिताईं जा । बचपन क सबसे बड़ा आकर्षण रहे झरबेरी के झाड़ में काँटा बचावत बइर बिनना अउर कुल लयिकिन के दुआरे बटोर के गोटी खेलना ।ओ समय क संगी- साथी याद आवें अउर पता ना काहें कृष्णों चच्चा बहुत याद आवे लगल रहलन ।

सब उनके आड़े- अलोते मउगा कहे बाकिर हमहन बदे ऊ नेह- छोह से भरल चच्चा रहलन । हम तब कक्षा तीन में रहलीं जब उनके चीन्हे- जाने लगलीं । ओ समय उनकर उमर बीस- बाइस साल के निगचे रहल होई ।कवनो कार- परोजन पड़े त आजी उनके बोला लें नमकीन -मिठाई बनावे के अउर ऊ धउरल आवें । हमहन क दूरे से उनके बुनिया छानत, चाशनी बनावत अउर दुन्नू तरहत्थी से गोल- गोल लड्डू बान्हत देखीं जा । खाजा -टिकरी ऊ एतना बढ़ियाँ बनावें कि मुंह में डलते घुल जाय । उनके मिठाई बनावत हमहन क दूरे ले बइठ के देखी जां अउर ललचा- ललचा के मुंहे से लार चुवायीं जा बाकिर आजी के डर से मांगे क हिम्मत ना पड़े । कृष्णा चच्चा हमहन क दीन- दसा पर मुस्कियाएं अउर आजी क निहोरा करे लगें- ‘अरे दे दा न लइकवन के लडुइया ए बड़की माई ! काहें लइकन क जीव जरावत हऊ । ले रे बचिया, जो भाग जो लेके ।’ आजी ‘हं.. हं ..हं करत रह जाएं अउर हमहन क मिठाई खात, चहकत, कुद्दत दुआरे भाग जायीं जा ।

कृष्णा चच्चा लइकन के संगे लइका बन जायं । कब्बो केहू के संगे गोली खेले लगें, कब्बो केहू क परेता लेके भक्कटे- भक्कटे करत पतंग उड़ावे लगें, कब्बो लइकिन के गोल में बइठ के गोटी खेले लगें । कृष्णा चच्चा सबकर छोट से लेके बड़ काम दउड़- दउड़ के निस्वार्थ भाव से करें । कस्बा जा के कवनो बहिन क चूड़ी- सेनुर ले आ दें त कवनो भउजाई क चप्पल- सैंडिल । गाँव भर में सबही के कृष्णा चच्चा से काम पड़त रहे अउर सबही क काम समभाव से कइले कय घलं ।

सबकर सेवा- टहल कयिलहुँ के बादो जेकर जब मन करे उनके मउगा’ उपनाम से संबोधित करे लगे । कृष्णा चच्चा के ‘मउगा’ कहल मर्द लोगन के ओरी से शुरू भयल बाद में मेहरारू लोग भी जिनकर काम निकल जाय, उहो कहें । हमहन क तब मउगा क मतलब ना समझ पायीं जा बाकिर, जब बड़ भयिनी जा अउर समझे- बूझे लगलीं जा त कृष्णा चच्चा के प्रति सबकर ई दुर्व्यवहार देख के बहुत तकलीफ पहुंचे ।

कृष्णा चच्चा केहू क अनभल ना कइलन अउर केहू उनकर भला ना कइलस । सब उनकर बुराइये बतियावे । एतना बरीस बीत गइलो के बाद उनके खातिर केहू के मन में मोह- माया ना रहे इ सोच- सोच न पाते काहें हमार करेजा करके लगल रहे । हम मन बना ले ले रहलीं कि कृष्णा चच्चा से मिले जइबे करब । बिहान होत आजी से काली माई क दर्शन के बहाने कमकरिनिया आजी के संगे चल दिहलीं कृष्णा चचा के घर ओरी । काली माई क गोड़ लाग के कमकरिनिया आजी से जब हम कृष्णा चच्चा के घर ओरी चले के कहनी त पहिले त ऊ आजी के डर के मारे मना कय दिहलीं फिर बहुत मनावन के बाद मान गइलीं । रस्ता भर कृष्णा चच्चा के बारे में बात होत गयल अउर पता चलत गयल कि उनकर मेहरारू एकदम अक्खज आईल हे । खाना से लेके ओकर लुग्गा फीन्चे- कचारे क काम इहे करें लं ।पहिलवे क मउगा रहलन अउर अब त एकदम्मे से मेहरी क गुलाम हो गयल हउवन । खेत- बारी बिला गयल त अब लइकन के दुआरे बइठा के ट्यूशन पढ़ावे लं ओही से खींच- तान के गुजारा होला । ई कुल सुन- सुन के हमरे मन में कृष्णा चच्चा से मिले क उतावली बहुत बढ़ गईल । पूरा गाँव जेकरे घरे- घरे जा के ऊ कार- परोजन समहरले रहलन । बियाह- सादी में भोज- भात क कुल जिम्मेदारी उठवले रहलन । मुफ़्त में गाँव के लइकन के पढ़वले रहलन आखिर अइसन इंसान क तारीफ करे के बजाय सब उनकर बेइजती काहें करत ह । इहे कुल जाने खातिर मन व्याकुल होत जात रहे ।

कृष्णा चच्चा क घर आ गयल रहे । हमके देखते ऊ चिहा के दौरलन-‘ अरे हमार बाची ! आवा- आवा सुनले रहलीं हं कि बाची आईल रहलीं ह बाकिर घर से निकले क छन भर क मोका ना लगल ह । आवा बइठा.. बइठा ।’ हमके अँगना में मचिया दे के बइठवलन । हमके देख के चच्चा एतना खुश रहलन कि उनकर आंखी क कोर भींज गईल ।

‘अच्छा त अपने चाची के पंजरे बइठा हम अबहियें आवत हईं । हमके चाची के कमरा में बइठा के ऊ सन्न से बहरे निकल गइलन । ढहल- ढिमलायल छरदीवारी से घिरल एक्के गो कमरा रहे जवने में झीलंगी खटिया पर चाची पड़ल रहलीं । हमरे भीतर घुसते ऊ सुतले-सुत्तल घूँघट काढ़ लिहलीं । ‘तबियत ठीक ना ह का चाची,काहें एतरे पड़ल हईं ?’ हमरे सवाल क जवाब चाची ओरी ले ना आईल ना त ऊ घूंघट हटवलीं ।

‘ए चाची हम गाँवे क लइकी हई बाकिर आपके कब्बो कलियो माई तर जात ना देखले हईं । काल्ह जायेके ह हमके इँहा से । फिर ना जाने कब आइब ।आपलोगन से फिर भेंट- मुलाक़ात होई कि ना होई ।’ हमरे एतना कहते चाची धीरे से घूंघट हटा दिहलीं अउर उनके देखते हमार साँस- परान टंगा गयल । कोटर में धंसल बड़- बड़ आँख क बस पुतरी लउकत रहल । गाल-होठ कुल धंस के कुरूप हो गयल रहे । कपार क आधे से ज्यादा बाल झड़ गयल रहे । गर्दन से लेके धड़ तक हमार नज़र गईल त लगल कि एगो कंकाल के साड़ी ओढ़ा गयल ह । उनकर दसा देख के लगे कि हम ओहिजे रो देब । केहुतरे अपने के सम्हारत हम पुछलीं कि का हो गयल ह उनके त ऊ बतवलीं कि भीतरिया रोग ह।केहू कहेला थायराइड हो गयल ह, केहू कहेला किडनी में कवनो दिक्कत ह त केहू कहेला कि कैंसर हो गयल ह ।बोलत- बतावत चाची हिचक- हिचक के रोवे लगलीं-

‘ए बाची ! हमरहीं पीछे कुल खेत- बारी बेचा गयल । नइहर -ससुरे सब मुंह फेर लेहलस । आपके चच्चा से कहीला कि अब हमार इलाज जिन करायीं, छोड़ दिहीं भाग भरोसे बाकिर ना मानेलन । साड़ी- कपड़ा, ओढ़ना- बिछवना कुल उहे साफ़ करेलन । ए जी, मन करेला कि जहर- माहुर खा के मू जायीं । कवन सुख दिहलीं हम ए अदिमी के…बियाह के अईले के साल भर बादे ई मेहरारु क सुख ना जनलन । हमरहीं पीछे फेफियायिल फिरेलन…दई हमार खोजियो नईखन करत ।’ चाची हिचक- हिचक के रोवे लगल रहलीं तब्बे चच्चा आ गइलन, प्लेट में पेठा अउर नमकीन सरिअवले ।

‘ला तू फिर आपन कथा- पुरान ले के बइठ गइलू । अरे एतना दिन प बाची भेटायल हईं, फिर न पता कब आवे क मौका लगी इनके । हाल- समाचार पूछे के त अपने दुख रोवे लगलू । अरे भाई तोहरे खातिर त हम हइये न हईं ‘ चच्चा चाची के पेठा क छोट टुकड़ा खियावत अउर पानी पिया के मुंह पोछत कहलन । जब हम उँहा से चले लगलीं त चाची के हाथ से खोइंछा देवा के असीसत घरे ले छोड़े अइलन । जवने दिने गाँव से विदा भईलीं त सबके आगे कृष्णा चच्चा के ठाढ़ देखलीं । ई जानते हुए भी कि उनकर आईल हमरे बाबा के ना पसंद ह तब्बो ऊ बस तक बैठावे अइलन ।


(कथाकार, कवयित्री, वाराणसी, भारत)
[email protected]