• २०८१ भाद्र २५ मङ्गलबार

बुकमार्क

नंदा पाण्डेय

नंदा पाण्डेय

आज नींद,
आंखों से कोसो दूर है
पुरानी डायरियों की धूल को झाड़ कर,
कुतरने बैठी हूं रात का तीसरा पहर
वसंत हो, जाड़ा हो या हो गर्मी
मैं डायरी को और डायरी मेरी नब्ज को
अब अच्छी तरह पहचानने लगे हैं
डायरी के कुछ पन्ने
जो आज भी दमदार हैं और
अबे- तबे से भड़क रहे हैं,
उन्हें अपने होने का गर्व है
कुछ पन्ने,
जो सत्य के सूर्य और चंद्रमा के झूठ के
मकड़जाल में उलझ कर रह गए थे
आज उसके सामने रोने का मन हो रहा है
कुछ खाली पन्नों को,
जिसे ‘बुकमार्क’ लगा कर छोड़ दिया गया था
स्मृतियों की पीड़ा से कराहते और व्यर्थ के आशावाद से
मुखर होकर आज,
पहचान, सम्मान और स्वीकृति की आस में अपलक निहार रहे थे
मैंने सकपका कर अपनी नजरें झुका ली
अब नहीं चाहिए मुझे सतही- प्रेम
गहरे विवेक से काम लेते हुए
सुबह होने से पहले
इन खाली पन्नों को जहाज बना कर उड़ा दूंगी
कि, चैन से जीने के लिए
जरूरी है
अब, सकून भरी नींद का होना….!


(स्वतंत्र लेखन, राँची, झारखंड, भारत)
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