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हिंदी साहित्य में रामधारी सिंह दिनकर को उनकी राष्ट्र प्रेम और ओजस्वी कविताओं के लिए एक जनकवि के साथ-साथ राष्ट्रकवि के नाम से भी जाना जाता है । आजादी की लड़ाई से लेकर आजादी मिलने के बाद तक उनकी लिखी कविताएं, उनके लिखे लेख, निबंध, लोगों में आजादी के प्रति, संस्कृति के प्रति जोश जगाने वाले रहे ।
भारत के स्वतंत्र होने के पश्चात दिनकरजी मुख्य रूप से गद्य सृजन की ओर उन्मुख हो गए। उन्होंने स्वयं कहा भी है- ‘सरस्वती की जवानी कविता है और उसका बुढ़ापा दर्शन है ।’
दिनकरजी के उत्तरवर्ती जीवन में यही दार्शनिकता तथा गूढ़ वैचारिकता गद्य में प्रकट हुई ।
दिनकर के साहित्यिक जीवन की विशेषता यह थी कि शासकीय सेवा में रहकर राजनीति से संपृक्त रहते हुए भी वे निरंतर स्वच्छंद रूप से साहित्य सृजन करते रहे । उनकी साहित्य चेतना राजनीति से उसी प्रकार निर्लिप्त रही, जिस प्रकार कमल जल में रहकर भी जल से निर्लिप्त रहता है ।
अपितु राजनीति में संपृक्त रहने के कारण उनके गद्य में अनेक ऐसे तथ्य पूर्ण निर्भीकता से प्रकट हुए हैं, जिनके माध्यम से तत्कालीन राजनीतिक परिदृश्य तथा राजनेताओं की प्रवृत्तियों का स्पष्ट परिचय प्राप्त हो जाता है । ‘संस्मरण और श्रद्धांजलियाँ’ उनकी ऐसी ही पुस्तक है, जिसमें समकालीन साहित्यकारों के साथ-साथ राजनेताओं के संस्मरण भी संकलित हैं ।
‘अर्धनारीश्वर’, ‘रेती के फूल’, ‘वेणुवन’, ‘वटपीपल’, ‘आधुनिक बोध’, ‘धर्म नैतिकता और विज्ञान’ आदि दिनकरजी के ऐसे निबंध संग्रह हैं, जिनमें उन्होंने आधुनिकता और परंपरा, धर्म और विज्ञान, नैतिकता, राष्ट्रीयता-अंतरराष्ट्रीयता आदि विषयों के साथ काम, प्रेम, ईर्ष्या जैसी मनोवृत्तियों पर बड़ी गहराई से चिंतन किया है ।
अपनी प्रारंभिक कविताओं में क्रांति का उद्घोष करके युवकों में राष्ट्रीयता व देशप्रेम की भावनाओं का ज्वार उठाने वाले दिनकर आगे चलकर राष्ट्रीयता का विसर्जन कर अंतरराष्ट्रीयता की भावना के विकास पर बल देते हैं ।
धर्म और विज्ञान के विषय में दिनकर का स्पष्ट मत है कि ‘जीवन में विज्ञान का स्थान तो रहेगा परंतु वह अभिनव रूप ग्रहण करके आधिभौतिकता से ऊपर उठकर धर्म के क्षेत्र में जीवन की सूक्ष्मताओं में प्रवेश करेगा ।’
आधुनिकता को दिनकर कोई मूल्य न मानकर एक ऐसी शाश्वत प्रक्रिया मानते हैं, जो अंधविश्वास से बाहर निकलकर नैतिकता में उदारता बरतने के लिए, बुद्धिवादी बनने को प्रेरित करती है । दिनकरजी ने आलोचनात्मक गद्य का भी सृजन किया है । ‘मिट्टी की ओर,’ ‘काव्य की भूमिका’ ‘पंत, प्रसाद और मैथिलीशरण’ उनके आलोचनात्मक ग्रंथ हैं ।
इनमें उन्होंने समकालीन कवियों व काव्य प्रवृत्तियों के विषय में अपने स्वतंत्र विचार प्रकट किए हैं । इनसे हिन्दी आलोचना को नवीन दिशा व दृष्टि मिली है । रीतिकालीन काव्य के विषय में दिनकर का मत है ‘चित्रकला की कसौटी रीतिकाल के साथ न्याय करने की सबसे अनुकूल कसौटी होगी ।’
कवि दिनकर की प्रारंभिक रचनाएं उनके काव्य संग्रह ‘प्राणभंग’ और ‘विजय संदेश’ थे जो उन्होंने 1928 में लिखे थे । इसके बाद दिनकर ने कई प्रसिद्ध रचनाएं लिखीं जिनमें रेणुका, ‘परशुराम की प्रतीक्षा’, ‘हुंकार’ और ‘उर्वशी’ काफी प्रचलित रचनाएं हैं । दिनकर के लिखे निबंधों में अर्धनारीश्वर, रेती के फूल, वेणुवन, वटपीपल, आधुनिक बोध इत्यादि प्रसिद्ध निबंध संग्रह हैं । उनकी लिखी पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ काफी चर्चित रही जिसे 1959 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया ।
कवि दिनकर का जन्म 23 सितंबर 1908 को बिहार के बेगुसराय जिले के सिमरिया गांव में हुआ था । मात्र तीन साल की छोटी सी उम्र में उनके सिर से पिता का साया उठ गया था जिसके कारण उनका बचपन कठिनाइयों में बीता। मैट्रिक की पढ़ाई पूरी करने के बाद 1928 में दिनकर पटना आ गए, यहां इतिहास में ऑनर्स के साथ 1932 में उन्होंने बीए किया और एक स्कूल में प्रधानाध्यापक पद पर नियुक्त हुए । 1934 में दिनकर को बिहार सरकार के अधीन सब रजिस्ट्रार की नौकरी मिली । लोकतंत्र की अलख जगाती क्रांतिकारी हुंकार भरी दिनकर की कविताओं से अंग्रेज भी घबराते थे यही वजह थी कि सब रजिस्ट्रार पद पर सेवा के दौरान प्रथम चार वर्षों में अंग्रजी शासन ने 22 बार उनका ट्रांसफर किया ताकि वे नौकरी छोड़ दें ।
हिन्दी के अलावा कवि दिनकर उर्दू, संस्कृत, मैथिली और अंग्रेजी भाषा के भी अच्छे जानकार थे । 1947 में वे प्रचार विभाग के उपनिदेशक और फिर मुजफ्फरपुर कॉलेज में हिन्दी विभागाध्यक्ष बने । वर्ष 1952 में दिनकर को राज्यसभा के सदस्य के लिए चुना गया और 12 वर्षों तक वे राज्यसभा के सदस्य रहे । वे भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति और भारत सरकार के हिन्दी सलाहकार भी बने ।
कविता रचने का भाव रामधारी सिंह दिनकर के मन में उनके घर में प्रतिदिन होने वाले रामचरित मानस के पाठ को सुनकर जागा । पहले जहां छायावादी कविताओं का बोलबाला था दिनकर ने हिंदी कविताओं को छायावाद से मुक्ति दिलाकर आम जनता के बीच पहुंचाने का काम किया । दिनकर ने अधिकतर कविताएं वीर रस में लिखीं । जनवादी, राष्ट्रवादी कविताओं के अलावा दिनकर ने बच्चों के लिए भी बहुत ही सुंदर कविताओं की रचना की । बच्चों के लिए लिखी उनकी कविताओं में ‘चांद का कुर्ता’, ‘सूरज की शादी’, ‘चूहे की दिल्ली यात्रा’ इत्यादि प्रमुख हैं ।
दिनकर की सशक्त लेखनी के लिए उन्हें कई नामी पुरस्कार साहित्य अकादमी पुरस्कार, पद्मविभूषण, भारतीय ज्ञानपीठ इत्यादि से सम्मानित किया गया । 1968 में उन्हें राजस्थान विद्यापीठ ने साहित्य-चूड़ामणि से सम्मानित किया। ज्ञानपीठ पुरस्कार उन्हें वर्ष 1972 में उनकी काव्य रचना ‘उर्वशी’ के लिये प्रदान किया गया । हरिवंश राय बच्चन ने उनके लिए कहा था कि दिनकर जी को एक नहीं चार ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने चाहिए थे, जो उनकी गद्य, पद्य, भाषा और हिंदी के सेवा के लिए अलग-अलग दिए जाते ।
‘उर्वशी’ लिखते समय दिनकर बीमार रहने लगे थे और डॉक्टरों ने उन्हें लिखने से मना कर दिया था । इसके बावजूद उन्होंने इस किताब को पूरा किया । 24 अप्रैल, 1974 को कवि दिनकर का निधन हो गया । उनकी मृत्यु के पश्चात वर्ष 1999 में भारत सरकार ने उनके नाम से डाक टिकट भी जारी किया ।
सच ही, अपने काव्य में सागर की सी गर्जना करने वाले, ‘उर्वशी’ के माध्यम से सुकोमल प्रेम की रसभरी सतरंगी फुहारों में स्नान कराने वाले और गद्य के माध्यम से चिंतन के नए आयाम रचकर काल की सीमाओं का अतिक्रमण करने वाले दिनकर का साहित्य आधुनिक हिन्दी साहित्य की श्रीवृद्धि करने वाला अनुपम आबदार मोती है, जिसे अब भी सच्चे जौहरी की तलाश है ।