• २०८१ असोज २४ बिहीबार

अब तो पानी कहीं नहीं है

संजय पंकज

संजय पंकज

हम–सी परजा उनद्दसा राजा
दिलबर जानी कहीं नहीं है !
पानी पानी फिर भी कहते
अब तो पानी कहीं नहीं है!

०००
थोड़ा धन है थोड़ा बल है
उनसा ज्ञानी कहीं नहीं है !
भरा–भरा है पानी पानी
चढ़ी उमड़कर चढ़ी जवानी
सड़कें गलियां छप्पर छानी
फिर भी कहते जाने कैसे ?अब तो पानी कहीं नहीं है !
उतर गया आंखों का पानी
सुनते हम अनकही जुबानी
सब समझे हैं बात सयानी
उलट–पुलटकर उनको देखा,जीवन धानी कहीं नहीं है !
बचा हुआ है कितना पानी
बता रही है नीरस वाणी
वे तो ठहरे बगुला ध्यानी
अपना आप नमूना देखो, ऐसा प्राणी कहीं नहीं है !
गाड़ी बंगला कुत्ते पानी
चमचे बमचे लूट दुकानी
सेवक अपने हैं खनदानी
हम–सी परजा औ’ उन समान, राजा जानी कहीं नहीं है !
सबका लेकर पानी पानी
सबका सबको देकर दानी
होते रहते फानी फानी
रजा राम को दुख दिखलाती, कुबरी कानी कहीं नहीं है !
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(सुप्रसिद्ध साहित्यकार, कवि व सामाजिक चिंतक÷मुजफ्फरपुर बिहार, भारत)
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