• २०८१ असोज २४ बिहीबार

अन्तःप्रवाह की अपरिचित दुनिया

डॉ.श्वेता दीप्ति

डॉ.श्वेता दीप्ति

मन के अन्दर अन्तःप्रवाह की एक अपरिचित दुनिया हर पल प्रवाहमान रहती है, जो कभी हमें बहकाती है, तो कभी सही राह पर भी ले जाती है । हमारे इर्दगिर्द की दुनिया में हमेशा कोई ना कोई किरदार हमें प्रभावित करता है और फिर हम उसके करीब होते हैं और उसकी जिन्दगी में एक कहानी तलाश कर रहे होते हैं । सच तो यह है कि हर व्यक्ति खुद में एक कहानी का पात्र होता है और उसकी जिन्दगी एक कहानी होती है । जिन्दगी है तो, अच्छी बुरी यादें हैं, सुख–दुख है, प्यार है, विछोह है और हमसे जुड़ी कई शख्शियत हैं, हमारे आस–पास जो इन सारी घटनाओं का ताना–बाना रच रहे होते हैं । इन सबको जब शब्दों का जामा पहना दिया जाता है तो कभी यह कविता, कभी कहानी, तो कभी उपन्यास या संस्मरण बनकर हमारे सामने आता है ।
ऐसी ही एक कृति पढ़ने का अवसर मिला जब शालीन और आकर्षक व्यक्तित्व के मालिक संजय हाण्डा से मिलने का सुअवसर मिला और इनकी रचित अन्तःप्रवाह मेरे हाथों में आई । यह जानकर आश्चर्य हुआ कि आप बैंक से आबद्ध रहे हैं और ऐसे में बैंक की नीरस दुनिया जहाँ जोड़–घटाव में वक्त गुजरता है वहाँ लेखक का मन किस तरह एक उपन्यास का विषय वस्तु तलाश कर रहा होगा रु किन्तु अर्थ के जोड़–घटाव ने ही शायद रिश्तों के जुड़ने और टूटने की नींव तैयार की होगी और अनुभव के रेशों से गुँथा गया होगा अन्तःप्रवाह ।
अन्तःप्रवाह एक ऐसी रचना जिसमें मन सायास प्रकृति के आँगन में रमता है, जहाँ रेवती का व्यक्तित्व पहाड़ी नदियों की तरह निर्मल और चंचल होकर बहता है, जहाँ समीर प्यार के अहसास के साथ कभी बैचेन तो कभी सुकून महसूस करता है, जी हाँ यही है अन्तःप्रवाह की दुनिया, जो पाठकों को अपने साथ बाँधकर कहीं दूर ले जाती है । उपन्यास का कथानक समीर की स्मृतियों के गलियारों से होकर गुजरता है । कभी वर्तमान तो कभी अतीत को कुरेदती चलती है अन्तःप्रवाह की यात्रा । कहीं–कहीं कथोपकथन पर बोझिल दार्शनिकता हावी होती है बावजूद इसके उपन्यासकार की प्रस्तुति पाठक को अन्त तक बाँधे रखने में सफल हुई है ।
शहर का समीर खुद को खो देता है पहाड़ी सौन्दर्य के आँचल में, उस निश्चल दिल के आनन में जो निष्कपट और निष्कलंक है । दोस्त के बहन की शादी में समीर उस गाँव में पहुँचता है जो शहर की सभी रंगीनियों से आज भी बहुत दूर है । जहाँ किसी एक बेटी की शादी पूरे गाँव की जिम्मेदारी बन जाती है । जहाँ हर घर तत्पर रहता है सहयोग के लिए और आयोजन को सफल बनाने के लिए ।
पहाड़ी रास्तों और प्रकृति के सौन्दर्य का रसपान करता हुआ समीर जब शादी के घर में पहुँचता है तो घुमावदार और जोखिमपूर्ण यात्रा की थकान और भय जल्दी दूर हो जाता है । शहर के कोलाहल से दूर यह गाँव उसे सुकून देता है—
“यहाँ की आबोहवा और लोगों के चेहरे पर एक दैवीय आभा स्पष्ट रुप से दिखलाई पड़ रही थी । एक अजनबी और छोटा सा गाँव जो सब कोलाहलों से दूर आध्यात्मिक राज्य के गर्भ में छुपा हुआ है जहाँ के माहोल की शांति मन को उदासी नहीं बल्कि रोमांच से भर रही थी ।”
किन्तु पहाड़ों की खूबसूरती के पीछे वहाँ बसे लोगों की जिन्दगी कितनी कठिन है और किस तरह वो मौत के साए में अपना जीवन बसर करते हैं, समीर इन बातों से भी परिचित होता है । परन्तु इस भय के साए में भी कितने सहज हैं ये लोग जो मौत की भयानकता को भूलकर जिन्दगी जीते हैं और खुश रहते हैं । इन सभी बातों को लेखक ने बहुत ही सलीके से व्यक्त किया है ।
उपन्यासकार ने दिल खोल कर पहाड़ों के सौन्दर्य और उसके बीच बसे गाँव की बनावट तथा रीति रिवाजों का सजीव वर्णन किया है । एक नए अनुभव से गुजरता हुआ समीर गाँव के हर रीति रिवाज और व्यवस्था का आनन्द लेता है । सब कुछ नया है, पर सबकुछ अपना सा भी लगता है उसे, बनावटी दुनिया से परे गाँव और गाँव के लोग उसे अपनी ओर खींचते हैं और यहीं मुलाकात होती है उसकी रेवती से जो उसके दोस्त मनोज की छोटी बहन है । रेवती की चंचलता और उसकी मासूमियत उसे सहज ही आकर्षित करती है । यह आकर्षण कब प्यार में बदला पता ही नहीं चला शादी के समारोह के उन दो दिनों में समीर खींचता चला गया रेवती के करीब ।
समीर जिसे स्वीकार करने से हिचक रहा है पर रेवती के मोह से खुद को बचा भी नहीं पा रहा—
“अपनी आँखों को छोटा कर अपने हाथ सिर के पीछे टिकाकर कुर्सी को आगे पीछे झुलाते हुए मेरी निगाहें रेवती को ही देखने में लगी थीं । नटखट, बातूनी, हाजिर जवाब, चेहरे पर लावण्य लिए हुए छरहरे बदन की रेवती प्राकृतिक सुन्दरता का एक अलग ही रूप लग रही थी ।”
पर एक संकोच उसके भीतर था कि कहीं वो अपने दोस्त के विश्वास को तो नहीं छल रहा रु क्या रेवती के प्रति आकर्षण उसकी गलती है रु क्या रेवती भी वही महसूस कर रही है जो उसका दिल महसूस कर रहा है —
“मैं हिम्मत नहीं कर पा रहा हूँ, मैं सोच नहीं पा रहा हूँ कि मुझे क्या करना चाहिए रु अपने संस्कारों में बँधा मैं खुद को बेबस महसूस कर रहा हूँ । मैं कैसे अपने मन की बात रेवती तक पहुँचाऊँ और फिर रेवती ने ना कह दी या उसे बुरा लगा तो ।।।।।और फिर बात विश्वास की भी है । जिस परिवार में मैं इतनी इज्जत के साथ बुलाया गया हूँ, जिस दोस्त ने मुझे इतने प्यार और विश्वास के साथ बुलाया उसके साथ यह विश्वासघात तो नहीं होगा रु”
इन सवालों के जवाब में लेखक ने एक बिम्ब तैयार किया है उस बुजुर्ग के रूप में जो समीर की आत्मा का प्रतीक है । जो उसे अहसास कराता है कि रेवती के प्रति उसका आकर्षण महज आकर्षण नहीं बल्कि प्यार है । वह उसे बताता है कि प्यार और वासना में फर्क होता है । प्यार की परिणति सिर्फ पाना ही नहीं है प्यार तो दिल में सहेज कर रखने वाली भावना है । और कभी–कभी एक बार की देरी हमेशा की दूरी बन जाती है । आखिर देरी हो ही जाती है । चाह कर भी समीर रेवती के सामने अपने प्यार का इजहार नहीं कर पाता । जबकि दोनों एक दूसरे की भावनाओं से वाकिफ थे फिर भी संस्कारों और परम्पराओं की जंजीर उन्हें रोक देती है । रेवती तैयार है हर उस बात के लिए जो उसके परिवार वाले उसके लिए फैसला लेंगे ।
वक्त का बहाव समीर और रेवती के अनकहे प्यार को कहीं दूर बहा ले जाता है । इनकी मंजिल बदल जाती है और कश्ती का माँझी भी । दोनों एक दूसरे से दूर यह सोच रहे होते हैं कि सभी अपने हासिल के साथ खुश हैं । समीर की तड़प और बैचेनी उसे अपनी दोस्त दीक्षा क ीओर ले जाती है पर उसके लिए रेवती जैसी भावना वह अपने अन्दर महसूस नहीं करता और फिर समीर का सफर इन्दु के पास आकर रुक जाता है । इन सबके बीच रेवती अपने पति आदित्य के साथ समीर से मिलने आती है और समीर को लगता है कि रेवती अपनी जिन्दगी में खुश है । पर काश कि ऐसा हो पाता ।
समीर को एक अवसर मिलता है रेवती के शहर देहरादून जाने का और इत्तफाकन उन्हें वहाँ वह एकान्त मिलता है जिसकी चाहत शायद जाने–अन्जाने दोनों के मन में रही होगी । क्योंकि यह चाहत की एक स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है, जहाँ प्यार स्पर्श की चाहत रखता है । रेवती अपनी बिखरती जिन्दगी और टूटते सपने को समीर के आगे व्यक्त करने से रोक नहीं पाती है । शादी के पहले के हसीन सपने, उसमें बसा राजकुमार और उसके रोमांचक साथ का अहसास कुछ भी तो रेवती को नहीं मिलता । पहली रात ही सपने टूटे थे उसके, जब नशे में धुत आदित्य उसके पास आया था और जहाँ उसे मिला था रेवती के रूप में एक शरीर और रेवती ने उसके समक्ष सिर्फ शरीर का समर्पण किया था आत्मा का नहीं । जब रेवती को यह लगा था कि उसके साथ बलात्कार हुआ है । इसएक पल के सपने हर जवान लड़की देखती है जब एक अनजाना अहसास उसके शरीर को सहलाता है, सिहराता है, पलकें बोझिल होती हैं, होंठ मुस्कुराते हैं पर हकीकत जब रौंदती है तो यह दर्द पूरी जिन्दगी के लिए नासूर बन जाता है । रेवती के साथ ऐसा ही कुछ होता है और जिसकी तड़प हरपल उसे बैचेन रखता है । यही तड़प समीर के सामने जाहिर होता चला जाता है जब वह अपने दर्द को परत दर परत उघाड़ती चली जाती है । समीर उसे रोकता नहीं है क्योंकि वह चाहता है कि रेवती आज उसके सीने से लगकर अपने दर्द को उढ़ेल दे । पर दो चाहने वाले एक साथ हों और एक अतृप्त चाहत के साथ हों, तो वहाँ जो घटता है वह अप्रत्याशित नहीं होता । कहीं ना कहीं उसका आधार तैयार होता है । रेवती उस नदी की तरह थी जिसका किनारा समीर के सामने टूटने को तैयार था और उस तेज धार के बहाव में समीर का बह जाना लाजिमी था । आदित्य के व्यवहार से पीडि़त रेवती एक ही क्षण में समीर से सब पा लेना चाहती है और वह तृप्त होती भी है । प्यार को समर्पण मिलता है । एक खलिश जो रेवती के अन्दर था समीर को खोने का और एक अनचाहे रिश्ते को ढोने का कुछ क्षण के लिए वह इन सब से मुक्त हो जाती है ।
पर ज्वार जब हटता है तो हकीकत सालता है इंसान को । और तब समाज, रीति रिवाज, रिश्ते सभी सामने आ खड़े होते हैं । रेवती के लिए जो समर्पण था समीर को वह एक क्षण के लिए आने वाला तुफान था । यहाँ समीर से अधिक रेवती मजबूत है क्योंकि उसे लगता है कि उसे जो चाहिए था उसे पाने का अधिकार उसे है क्योंकि वह परिपक्व है । वह अपने समाज के उस सोच के खिलाफ जाना चाहती है जहाँ औरत के अन्दर पालन पोषण के साथ संस्कारों को चुपचाप ढोने के लिए भी तैयार किया जाता है ।
पर रेवती के समर्पण के बाद समीर को उसे यथार्थ से अवगत कराना कहीं चुभता रहा । जो बातें समीर शरीर की सीमा से परे जाने के बाद रेवती को समझाता है वह उसे पहले भी समझा सकता था । उसे बता सकता था कि राजकुमार जैसा पति हकीकत में राजकुमार नहीं सिर्फ एक आम इंसान होता है और उसी में हमें अपने ख्वाब को तलाशना होता है । वैसे तो नायिका इस सलाह को मान जाती है पर एक हकीकत यह भी है कि आत्मसमर्पण के बाद अगर यह बताया जाय कि यह सिर्फ एक क्षणिक बहाव था, शारीरिक आकर्षण था सच सिर्फ और सिर्फ परिवार है तो एक आत्मग्लानि पैदा हो सकती है । पर अन्तःप्रवाह में ऐसा नहीं होता रेवती अपने आस पास के सच को स्वीकार करने के लिए तैयार हो जाती है जिसे वह शादी के पाँच वर्षों के बाद तक स्वीकार नहीं कर पाई थी । और समीर उसके लिए एक सच्चे मित्र की तरह होता है जो उसकी आँखों पर पड़े आवरण को हटाकर आदित्य के साथ खुश रहने की सलाह देता है । रेवती कहती है कि, अब मुझे इस बात का डर नहीं है कि तुम मुझे छोड कर जा रहे हो क्योंकि मैं जान गई हूँ इंसान बदल जाते हैं प्यार नहीं बदलता, प्यार तो हमेशा हमारे शरीर में हमारे दिल में रहता है । इसके साथ ही रेवती के मन में आदित्य के लिए जो गिले शिकवे थे वह दूर हो जाता है ।
उपन्यास का अंत यहीं होता है इस निष्कर्ष के साथ कि, ख्वाब और हकीकत की जमीं अलग होती है और जो प्राप्य है उसे पाकर खश रहना ही जीने की कला है । समीर अपनी नवजात बेटी को गोद में लेकर यह प्रण करता है कि वह उसे कमजोर नहीं बनने देगा । वह अपने स्वतंत्र अस्तित्व के साथ जिएगी ।
कई उतार चढाव के बाद एक सुखद परिणति होती है । शुरुआती दौर से ही जो बैचेनी का सफर शुरु होता है वह अनायास विराम पा जाता है जीवन के प्रति एक सकारात्मक सोच के साथ ।