• २०८१ बैशाख १३ बिहीबार

अनोखा कर्तव्य

इरा ठाकुर

इरा ठाकुर

अभी–अभी सपरिवार सुधा शिवसमुद्रम से वापस लौटी थी । शरीर थकान से चूर हो रहा था । आँखें इस तरह नींद से बोझिल हो रही थीं, जैसे बिछावन पर पड़ते ही सो जाओ । पर, मन था कि रास्ते में छोटे से ढाबे पर मिले, उन बुजुर्ग दम्पत्ति पर ही अटककर रह गया था । उनका उदास लेकिन कर्तव्य से ओतप्रोत चेहरा बार–बार सुधा के मन को उदासी और प्रेरणा से भर दे रहा था । इस सब में खास और ध्यान देने वाली बात ये है कि उदासी के साथ प्रेरणा से मन भर रहा था, ना कि उदासी के साथ किसी दया भाव से ‘..किसको , किससे, कब और किस तरह मिलना होता है, इस बात का कुछ पता नहीं ! ये सब ईश्वर ही तय करते हैं ।’ उस ढाबे पर ही सुधा लोगों का पहुँचना, ईश्वर की ही मर्जी से हुआ था ।
बच्चों के आफिस में पाँच छः दिन की छुट्टी होने की वजह से सुधा के परिवार ने फिर केरल जाने का प्रोग्राम बनाया था । किंतु केरल में भयानक बाढ़ आ जाने की वजह से सब गड़बड़ हो गया । मन मसोस कर रिजार्ट की बुकिंग कैंसिल करनी पड़ी । सबका मन मुरझा सा गया था । फिर उसी रात को अचानक ही बच्चों ने शिवसमुद्रम जाने का प्रोग्राम बना लिया । उन्होंने कहा, क्या हुआ जो हम केरल नहीं गए । बैंगलोर के आस–पास घूम कर आते हैं ।
शिवसमुद्रम बैंगलोर से तीन साढ़े तीन घण्टे की दूरी पर है । कावेरी का उद्गमस्थल होने की वजह से वहाँ पानी का विकराल रूप लोगों को बेहद रोमांचित कर देता है ।
अगले दिन सुधा सपरिवार सुबह–सुबह शिवसमुद्रम की तरफ निकल पड़ी । पर अभी आधा रास्ता ही तय किया था कि कार की टायर पंक्चर हो गई । जहाँ कार पंक्चर हुई थी वहाँ से कुछ दूरी पर एक छोटा सा कस्बा था । उस कस्बे में खाने के लिए एक छोटे से ढाबे के सिवा कुछ दिखाई नहीं दे रहा था । चूँकि सबका रास्ते में ही खाते–पीते जाने का प्रोग्राम था, सो घर से कुछ खाकर नहीं निकले थे । तबतक बारिश भी शुरू हो गई । ड्राइवर भी मन मसोसकर बारिश रुकने का इंतजार करने लगा । बारिश में टायर बदलने के दौरान भींगने का खतरा था । अबतक सबको जोरों की भूख लग आई थी । इसलिए सबने उस छोटे से ढाबे में ही जाकर कुछ खाना मुनासिब समझा । चाय की भी तलब हो रही थी । उस ढाबे में नाश्ते के साथ–साथ चाय भी मिल जाती और इसी बहाने सबको बारिश रुकने तक बैठने के लिए एक जगह भी मिल जाती ।
सबलोग उस ढाबे की तरफ चल पड़े । जगह इतनी बुरी भी नहीं थी, जैसा की दूर से जान पड़ता था । छोटी सी ही थी, पर साफ–सुथरी जगह थी । सभी टेबल पर मेन्यू पड़ा था । सारे का सारा खाना दक्षिण भारतीय । तभी हमारे पास इकहत्तर–बहत्तर साल की एक बूढ़ी औरत आई । उन्होंने काँपती आवाज में कन्नड़ में पूछा कि आप सबके लिए क्या–क्या लाऊँ ? सबने अपने–अपने हिसाब से खाने का ऑर्डर दे दिया । ऑर्डर देने के बाद सब खाना आने का इंतजार करने लगे । जगह खूबसूरत होने की वजह से बच्चे फोटोग्राफी में लग गए थे । करीब पंद्रह मिनट बाद खाना आया । एकदम साफ सुथरा और गरम खाना । खाना लाने वाले भी एक वृद्ध आदमी ही थे । वो भी यही कोई पचहत्तर–छिहत्तर के रहे होंगे । उनके हाथ बेतरह काँप रहे थे । सबने उनके हाथ से प्लेट ले लिए । अचानक सबने गौर किया कि ये ढाबा सिर्फ यही दोनों बुजुर्ग मिलकर चला रहे थे । वहाँ तीसरा कोई भी नहीं था । दोनों के हाथ काँप रहे थे पर, काम के प्रति अब भी उतने ही सजग और समर्पित । एक बार मन में विचार भी आया कि इनके बच्चे कितने स्वार्थी हैं ? इन्हें अपने साथ क्यों नहीं ले जाते ? वो इन दोनों से इस उम्र में इतना काम कैसे करवा सकते हैं ? उन बुजुर्गों को देखकर ना जाने क्यों भूख मर सी गई और मन कुछ खिन्न सा हो गया । फिर मन ने कहा जिनके बच्चे इन्हें नहीं रख रहे हैं, उनके लिए हम जैसे राही क्या कर सकते हैं ? खाना बहुत स्वादिष्ट था । सुधा उनसे कहना चाह रही थी कि मेरे ख्याल से अब आपलोगों को इस उम्र में बच्चों के पास जाकर आराम करना चाहिए ! सुधा कुछ कहती उसके पहले ही उसकी नजरें दीवार पर टँगी दो तस्वीरों पर जा टिकीं । वो तस्वीर थी एक युवक और एक युवती की । दोनों की उम्र करीब तीस से बत्तीस साल की रही होगी । उन तस्वीरों पर माला चढ़ी थी । सुधा के सामने जैसे सब कुछ आईने की तरह साफ हो गया । ना जाने क्यों उसका मन भर आया । अहसास किसी भाषा में कहाँ बंधा होता है ? वेदना तो आत्मा से जुड़ जाती है । उन दोनों बुजुर्गों ने शायद हमारी अनकही बातों को भाँप लिया था । उन्होंने टूटी फूटी हिंदी में कहा । ये हमारे बच्चे हैं । सड़क दुर्घटना में नहीं रहे । इन्हीं की याद में हमदोनों इस ढाबे को चलाते हैं । इनसे जो पैसे जमा होते हैं, उनसे हम अनाथ बच्चों की सेवा करते हैं । हमारे पास अब हमारे बच्चे तो नहीं हैं । लेकिन, इन दोनों के सिवा अब हमारे बहुत सारे बच्चे हैं, जिनको हमारी जरूरत है ।
सुधा और उसके परिवार का मन उन दोनों के प्रति आदर से भर गया ।
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