वैद्यनाथ मिश्र : मैथिली साहित्य के “यात्री” और “हिन्दी” के नागार्जुन
मामूली सी बातों को कालजयी बनाने वाला जनकवि
बाबा नागार्जुन का असली नाम वैद्यनाथ मिश्र था लेकिन वे अपनी मातृभाषा मैथिली में ‘यात्री’ नाम से लिखा करते थे । यह उनका खुद का चुना हुआ उपनाम था । इसकी भी एक कहानी है । बचपन में अपने पिता के साथ यजमानी के लिए घूमने–फिरने वाले नागार्जुन ने एक बार मूल रूप से पाली में लिखी गई राहुल सांकृत्यायन की किताब ‘संयुक्त निकाय’ का अनुवाद पढ़ा था । इसे पढ़कर उनके मन में जिज्ञासा जागी कि इसे मूल भाषा में पढ़ना चाहिए । इसी को लक्ष्य बनाकर वे श्रीलंका पहुंच गए और यहां एक बौद्धमठ में रहकर पाली सीखने लगे । बदले में वे बौद्ध भिक्षुओं को संस्कृत पढ़ाते थे । यह उनकी यायावरी प्रवृत्ति का एक अद्भुत उदाहरण है और इसीलिए उन्होंने खुद को ‘यात्री’ नाम दिया था । श्रीलंका में ही वैद्यनाथ मिश्र बौद्ध धर्म में दीक्षित हुए और उन्हें नया नाम मिला – नागार्जुन । वहीं उनकी रचनाओं से प्रभावित पाठकों ने उन्हें ‘बाबा’ कहना शुरू कर दिया और आखिरकार वे बाबा नागार्जुन हो गए ।
जनता मुझसे पूछ रही है क्या बतलाऊं
जन कवि हूँ मैं साफ कहूँगा क्यों हकलाऊं
बाबा नागार्जुन की ये पंक्तियां उनके जीवन दर्शन, व्यक्तित्व एवं साहित्य का दर्पण है । अपने समय की हर महत्वपूर्ण घटना पर तेज तर्रार कवितायें लिखने वाले क्रान्तिकारी कवि बाबा नागार्जुन एक ऐसी हरफनमौला शख्सियत थे जिन्होंने साहित्य की अनेक विधाओं और तथा कई भाषाओं में लेखन कर्म के साथ–साथ जनान्दोलनों में भी बढ़ चढ़कर भाग लिया और उनका नेतृत्व भी किया ।
बाबा के नाम से प्रसिद्ध कवि नागार्जुन का जन्म 30 जून 1911 को बिहार में हुआ था । उनकी प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय संस्कृत पाठशाला में हुई । बाद में वाराणसी और कोलकाता में आगे की पढ़ाई की । 1930 में जब वह बौद्ध धर्म की दीक्षा लेकर वापिस स्वदेश लौटे तो उनके जाति भाई ब्राहमणों ने उनका सामाजिक बहिष्कार कर दिया । बौद्ध धर्म ग्रहण कर सन्यासी बनने पर ससुराल वालों ने इनके पिता को कसूरवार ठहराया और हिदायत दी कि दामाद को वापस बुलायें नहीं तो जेल भिजवा देंगें । बाबा नागार्जुन ने ऐसी बातों की कभी परवाह नहीं की । राहुल सांस्कृतायन के बाद हिन्दी के सबसे बडे घुमक्कड़ साहित्यकार होने का गौरव भी बाबा नागार्जुन को ही प्राप्त है । पर अपनी माटी से लगाव के कारण वे बार–बार घर वापिस लौट आते थे ।
1939 में वे स्वामी सहजानन्द सरस्वती और सुभाषचन्द्र बोस के सम्पर्क में आने के बाद उन्होंने छपरा में उमवारी के किसानों के साथ मिल संघर्ष का नेतृत्व किया । छपरा और हजारीबाग जेल में कारावास भोगने के तुरन्त बाद वे हिमालय तथा तिब्बत के जंगली इलाकों में भ्रमण के लिये निकल गये । 1941 में दूसरे किसान सभाई नेताओं के साथ भागलपुर केन्द्रीय कारागार में बन्द रहे । इसी दौरान वे गृहस्थाश्रम में वापिस लौट आये । 1948 में गांधीजी की हत्या पर लिखी गयी उनकी कविताओं के कारण उन्हें कारावास का दण्ड मिला ।
परंपरागत प्राचीन पद्धति से संस्कृत की शिक्षा प्राप्त करने वाले बाबा नागार्जुन हिन्दी, मैथिली, संस्कृत तथा बांग्ला में कविताएँ लिखते थे । मैथिली भाषा में लिखे गए उनके काव्य संग्रह ‘पत्रहीन नग्न गाछ’ के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया ।
स्वभाव से फक्कड और अक्खड़ बाबा नागार्जुन सच्चे अर्थों में जन कवि थे । वह बौद्ध भिक्षु भी रहे और कम्युनिस्ट प्रचारक भी, किसानों के आन्दोलन के साथ भी रहे और जयप्रकाश नारायण के छात्र आन्दोलन के साथ भी । वह प्रत्येक आन्दोलन और नेता के तभी तक समर्थक और अनुयायी रहे जब तक वह जनहित में रहा । जहां उन्हें लगा कि जनता को बरगलाया जा रहा है देश को धोखा दिया जा रहा है वह तुरन्त पलटकर नेतृत्व पर टूट पड़े । इसका सबसे बडा उदाहरण है सन 1962 में चीनी आक्रमण के समय प्रतिबद्ध वामपंथी होते हुये भी उन्होंने कम्युनिस्ट नेताओं को उनकी चीनी भक्ति के लिये जमकर कोसा और स्वंय को धिक्कारने से भी नहीं हिचकिचाये ।
जन संघर्ष में अडिग आस्था, जनता से गहरा लगाव और एक न्यायपूर्ण समाज का सपना, ये तीन गुण नागार्जुन के व्यक्तित्व में ही नहीं, उनके साहित्य में भी दिखते हैं । निराला के बाद नागार्जुन अकेले ऐसे कवि हैं, जिन्होंने इतने छंद, इतने ढंग, इतनी शैलियाँ और इतने काव्य रूपों का इस्तेमाल किया है । बाबा की कविताओं में कबीर से लेकर धूमिल तक की पूरी हिन्दी काव्य–परंपरा एक साथ जीती है । अपनी कलम से आधुनिक हिंदी काव्य को समृद्ध करने वाले नागार्जुन का 5 नवम्बर सन् 1998 को बिहार में निधन हो गया ।
साहित्यकारों की राय ‘यात्री’ के बारे में
हिन्दी के आधुनिक कबीर नागार्जुन की कविता के बारे में डॉ. रामविलास शर्मा ने लिखा है, ‘जहां मौत नहीं है, बुढ़ापा नहीं है, जनता के असंतोष और राज्यसभाई जीवन का संतुलन नहीं है, वह कविता है नागार्जुन की । ढाई पसली के घुमंतू जीव, दमे के मरीज, गृहस्थी का भार— फिर भी क्या ताकत है नागार्जुन की कविताओं में और कवियों में जहां छायावादी कल्पनाशीलता प्रबल हुई है, नागार्जुन की छायावादी काव्य–शैली कभी की खत्म हो चुकी है. अन्य कवियों मंय रहस्यवाद और यथार्थवाद को लेकर द्वन्द्व हुआ है, नागार्जुन का व्यंग्य और पैना हुआ है । क्रांतिकारी आस्था और दृढ़ हुई है, उनके यथार्थ चित्रण में अधिक विविधता और प्रौढ़ता आई है ।’
नागार्जुन के बारे में प्रसिद्ध आलोचक डॉ. नामवर सिंह ने लिखा है, ‘नागार्जुन की गिनती न तो प्रयोगशील कवियों के संदर्भ में होती है, न नई कविता के प्रसंग में, फिर भी कविता के रूप संबंधी जितने प्रयोग अकेले नागार्जुन ने किए हैं, उतने शायद ही किसी ने किए हों । कविता की उठान तो कोई नागार्जुन से सीखे और नाटकीयता में तो वे वैसे ही लाजवाब हैं । जैसी सिद्धि छंदों में, वैसा ही अधिकार बेछंद या मुक्तछंद की कविता पर. उनके बात करने के हजार ढंग हैं । और भाषा में भी बोली के ठेठ शब्दों से लेकर संस्कृत की संस्कारी पदावली तक इतने स्तर हैं कि कोई भी अभिभूत हो सकता है । तुलसीदास और निराला के बाद कविता में हिन्दी भाषा की विविधता और समृद्धि का ऐसा सर्जनात्मक संयोग नागार्जुन में ही दिखाई पड़ता है ।’
नागार्जुन को करीब से समझने वाले और उनकी रचनाशीलता को शब्दों में ढालने वाले प्रसिद्ध साहित्यकार और आलोचक डॉ. विजय बहादुर सिंह ने ‘नागार्जुन का रचनासागर’ में उन पर विस्तार से लिखा है । डा‘. विजय बहादुर सिंह लिखते हैं, ‘पारंपरिक अर्थों में नागार्जुन महाकवि नहीं हैं । किंतु वे महान कवि यदि नहीं भी कहे जाएं तो भी उनकी गिनती इसी श्रेणी में होगी क्योंकि राष्ट्रीय वेदनाओं की उनकी संवेदनीयता और राष्ट्रीय आंदोलन के गहरे सपनों के प्रति उनकी सजगता और आग्रहशीलता उन्हें यह स्थान मुहैया करा देती है ।’ उन्होंने लिखा है, ‘आलोचक ठीक ही कहते हैं कि नागार्जुन आजादी के बाद के राष्ट्रीय जीवन–यथार्थ के सबसे बड़े कवि प्रवक्ता हैं । यद्यपि उनकी मुख्य मुद्रा तीखी आलोचनात्मक है किंतु उनके पाठक जानते हैं कि कोमल और सुंदर का सन्निवेश और सृजन भी उनके यहां बेजोड़ है । प्रकृति हो या प्रेम, राजनीति हो या धर्म, सभ्यता आदि, उद्योग–व्यापार हो या विज्ञान और ज्ञान, यहां तक कि इतिहास–पुराण और देवी–देवता हों, सबके सब कविता के लोकतंत्र में अपने उस चेहरे के साथ मौजूद हैं, जिसे ये सत्ताएं प्रायः छिपाने और बचाने का काम करती हैं ।’
मैथिली साहित्य में नागार्जुन का स्थान
मैथिली साहित्य में नागार्जुन के स्थान को उनके पूर्ववर्ती कवियों से तुलनात्मक दृष्टि में देखना कदाचित अनुचित होगा । विद्यापति मिश्र अगर मैथिली के ऐतिहासिक साहित्यकारों में कालिदास और शेक्सपीयर जैसे लेखकों की श्रेणी से तुल्य हैं तो यात्री का स्थान भी कुछ अधिक पीछे न होगा । ४० से ६० के दशक में कई भारतीय भाषाओँ की रचनात्मकता में कई बदलाव आये । कई नयी विधाएं जुड़ी कुछ पुराने तौर तरीके हासिये पे चले गए, पर परिवर्तनशीलता की दृष्टि से यात्री मैथिली साहित्य के नए युग के जनक माने जा सकते हैं । उन्होंने न केवल मैथिली में पद्य लेखन और मूलतः मुक्तछंद में पद्य लेखन को मुख्यधारा का विषय बनाया । कविताओं में श्रृंगार और भक्ति की सीमाओं को पार करते हुए वो भाषा को सर्वहारा समुदाय के सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक पिछड़ेपन को उजागर करने का माध्यम बनाने में बहुत हद तक सफल रहे । नए युग के कवियों के लिए प्रगतिशील साहित्य में लेखन के प्रेरणाश्रोत के रूप में उन्हें आने वाले वर्षों में याद किया जायेगा । यात्री की विशेषताएं बस उनकी कविताओं के रूप गुण के कारण ही नहीं लेकिन उनके शब्द–चयन में महारथ से भी जुडी हैं । एक लगभग मृतप्राय भाषा से गुम हो चुकी शब्दों को नए ढंग की कविताओं में पुनर्प्रयोग कर के उन्होंने संजीवनी की तरह काम किया है । जैसा उनकी कविताओं में मैथिली और मिथिला के लिए प्रेम दीखता है उतना ही प्रेम उन्होंने उन शब्दों के साथ भी दिखाया है ।
बाबा के लिए कवि–कर्म कोई आभिजात्य शौक नहीं, बल्कि ‘खेत में हल चलाने’ जैसा है । वह कविता को रोटी की तरह जीवन के लिए अनिवार्य मानते हैं । उनके लिए सर्जन और अर्जन में भेद नहीं है । इसलिए उनकी कविता राजनीति, प्रकृति और संस्कृति, तीनों को समान भाव से अपना उपजीव्य बनाती है । उनकी प्रेम और प्रकृति संबंधी कविताएँ उसी तरह भारतीय जनचेतना से जुड़ती हैं जिस तरह से उनकी राजनीतिक कविताएँ । बाबा नागार्जुन, कई अर्थों में, एक साथ सरल और बीहड़, दोनों तरह के कवि हैं । यह विलक्षणता भी कुछ हद तक निराला के अलावा बीसवीं सदी के शायद ही किसी अन्य हिन्दी कवि में मिलेगी । उनकी बीहड़ कवि दृष्टि रोजमर्रा के ही उन दृश्यों प्रसंगों के जरिए वहाँ तक स्वाभाविक रूप से पहुँच जाती है, जहाँ दूसरे कवियों की कल्पना–दृष्टि पहुँचने से पहले ही उलझ कर रह जाए ।
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(डा. श्वेता दीप्ति त्रिभुवन विश्वविद्यालय में हिन्दी साहित्य की उप–प्राध्यापक हैँ ।)
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