एक बार एक सामान्य जीवात्मा ने मुझसे पूछा, जी मुझसे पूछा– लेखक और लेखन क्या होता है… ?
मै बड़ी सोच में पड़ गयी । क्या जवाब दूं. ? सोचा हिंदी व्याकरण उठा कर देखूं कुछ पता चले तो बता कर पल्ला झाड़ूं । लेकिन वहां देखा तो लेखक और उसके लेखन की परिभाषा कुछ ज्यादा ही व्यापक दिखी । अब मेरा काम और सिर दर्द बढ गया… ।
फिर सोची जननी (माँ) को परिभाषित किया जाए…अजीब है न, जिसने हमें जन्म दिया मैं आज उसी को परिभाषित करने के लिये कलम उठा रही हूँ । मेरे विचार से माँ को परिभाषित कर सकूँ इतनी मेरे कलम में ताकत नहीं…।
अब यदि बात करें एक रचनाकार÷लेखक और माँ÷जननी में समानता की तो “जननी” माँ है और कलमकार साहित्यिक कृतियों की एक अनोखी उपज है ।
जैसे बालावस्था मे हम माँ की उँगुली पकड़ पदचाप करते उसी प्रकार कलमकार साहित्यिक कृतियों और साहित्य की धरोधर होते हैं । रास्ते जब विमुख होती जननी हमारी संस्कृति संस्कार को बचाने मे अपनी भूमिका निभाती उसी पदचिन्हों पर अंकित साहित्य जगत मे एक कलमकार अपनी लेखनी से भाष से भावनाओं को परिचित कराता है ।
दोनों की समपूरकता एक जैसा अस्तित्व है, सबंधों का तालमेल है । ये जननी सुरक्षा व्यवस्था सृष्टि की हो जाती और एक कलमकार मानवीय संवेदना व्यक्त करने अपनी शब्दों से उतेजित करता है, जननी हमारी धरा सारे धर्म को मानती, उसी प्रकार धर्म निरपेक्षता से साहित्यिक कृतियों मे समावेश एक कलमकार अपनी भूमिका निभाता है ।
दोनों माँ और बच्चों जैसे आपसी संबंध रखते है एक दुसरे से जननी, कवच ममता और साहस की, कलमकार माँ यानि साहित्यिक जगत के उम्मीद को पूरा करने की अभिलाषा करता है ।
लेखनी में जननी की मनोवृत्तियों को दर्शाने का अद्भुत सलीका कलमकार की उपाधि है ।
सृष्टि सृजित कर अपनी ममतामयी आँचल प्रेम को संसार मे प्रकाशित करती जननी है…।
कलमकार अपने साहित्य का जनक होता है । जब बच्चा गर्भ में रहता है,तब माँ के मानसिक स्थिति के अनुसार बच्चे की रचना होती है,उसी तरह कलमकार के मानसिक स्थिति के अनुसार साहित्य की रचना होती है…। कलमकार अगर अवसाद में हो तो दुखी नकारात्मक विचारों की कविता का सृजन होता है,और अगर रोमांटिक मूड में हो तो सौंदर्य रस का सृजन होता है…। कलमकार अपने अनुभव से अपनी रचना में सुधार लाता है । जननी अपने बच्चों के लालन(पालन में ध्यान देकर उसे पुष्ट करती है।कलमकार अपनी रचना को अपने अनुभवों के अनुसार संवर्धित करता है, माँ अपने बच्चों को अपने संस्कार देती है, कलमकार भी समाज को संस्कार देता है, जननी संस्कृति की थाती अपने बच्चों के हाथ में सौंपती है । कलाकार भी संस्कृति का धारक होता है ,उसको आगे की पीढ़ी तक पहुंचाने का कार्य करता है। जिस तरह मांँ समाज की जनक होती है समाज के लोगों का निर्माण करती है उसी तरह कलमकार भी समाज का निर्माण करता है…। कलमकार जननी की तरह अपनी रचना से प्यार करता है।उसकी इच्छा रहती है कि उसकी रचना को सराहा जाय,जननी भी अपने रचना,(उसके बालक) के लिए ऐसा ही सोचती है।
कलमकार एक प्रकार से जननी होता है ।
जननी का अपनी रचना से ममता का भाव होता है,वैसे ही कलमकार का । दोनों अपनी रचना को हृदय से संभाल कर रखते हैं…। लेखन यात्रा के संघर्ष में एक लंबे इंतजार के वक्त ठीक उसी वेदना से एक रचनाकार गुजरता है जिस वेदना से “माँ” गुजरती है,एक शिशु को संसार में लाने के लिए…।
जिस पीड़ा से गुजरने के बाद ही मिलता है उसे संसार का महानतम अप्रतिम “मातृत्व का गौरव”!
दोनों ही दर्द में इतनी समानता के बाद भी… एक बड़ा ही महीन अंतर भी है, दोनों दर्द में…।
माँ जब असह्य वेदना से गुजरती है तो बाद में संसार में सृष्टि निर्मात्री होने का गौरव और संतोष प्राप्त करती है। भगवान का गौरव मिलता है उन्हें…।
पर एक रचनाकार उस गौरव से चूक जाता है। क्योंकि एक माँ की तरह अपनी ही रचना से वह खÞुद ही संतुष्ट नहीं होता ।
उसे लगता है… इतना कुछ लिख देने के बाद भी कितना कुछ अनलिखा(अनकहा रह गया। कितना कुछ और कहा जा सकता था… कितने अच्छे से कहा जा सकता था..!!
कुल मिलाकर अपनी ही रचना की पूर्णता के बाद वह अपने भीतर और असंतुष्ट और अपूर्ण महसूस करने लगता है…। वेदना मातृत्व का भोगा… पर संतोष, प्राप्ति कुछ भी नहीं। पर ये असन्तुष्टता भली है… और सुंदर रचना के लिए अभिप्रेरित करने को…। किन्तु यदि समानता की बात की जाय तो सच कहूँ तो एक लेखक भी माँ की तरह ही होता है,क्योंकि एक रचना को जन्म देने की पीड़ा भी किसी प्रसव पीड़ा के समान ही कष्टदायी होती है…। इन्हीं मिले जुले भावों में डूबी हूँ मैं अभी । कुछ भी स्पष्ट नहीं..!! बस जो आप सब से सीखा… पाया… उसे ही आप सबको समर्पित करती हूँ…।
विस्तार से फिर लिखूँगी… अभी मातृत्व का कुछ थोड़ा सा सुख जी लूँ ।
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