• २०८१ मंसिर १६ आइतबार

मन में क्यों अवसाद भरा ?

मधु प्रधान

मधु प्रधान

जीवन की लय जरा सी भंग हुई बेचैन हो उठा मन खींच लिये चारो ओर आशंकाओं के घेरे । राहें हमेशा सीधी ही तो नहीं होतीं, मोड़ भी आते हैं । कुछ रास्ते उबड़–खाबड़ भी होते हैं पर यदि लक्ष्य की ओर दृष्टि हो तो कुछ भी कष्टदायी नहीं लगता । सड़क के किनारे उगे पौधे, नन्हे–नन्हे खिलते फूल धूल प्रदूषण की मार झेलते हुये भी मुस्कराते हैं । बड़े छायादार पेड़ सदा राही को छाया देने को आतुर रहते हैं । किन्तु बुद्धिजीवी मानव क्यों अपना सहज प्रफुल्लित रहने का गुण भूल कर उदासी अपना लेते हैं बस यही प्रश्न है हमारा ।

क्यों इतना
अवसाद भरा है
उठो चलो
कुछ मन का करलो
सुबह आज भी मधुर–मधुर है
मन भावन किरणें बिखरी हैं
मल गुलाल कलियों के मुख पर
ओस धुली पाती निखरी हैं
इनसे कुछ
सम्वाद करो÷फिर
मन की रीती
गागर भर लो
आ जायेगी मृदुल दोपहरी
थोड़ा आलस भी आयेगा
आँगन की किलकारी सुनकर
कोना–कोना खिल जायेगा
सरपट भाग रहे
लम्हों से
कहना अब तो
जरा ठहर लो
धीरे–धीरे दिवस ढलेगा
पथिक लौट कर घर आयेंगे
दिन के अनुभव, थकन राह की
मिलजुल कर सब बतियायेंगे
शायद पाहुन
भी आ जायें
थोड़ा सज लो
और सँवर लो
फिर तारों की चुनरी ओढ़े
निशा परी नभ से उतरेगी
चुपके–चुपके सिरहाने पर
कुछ सुधियों के फूल धरेगी
उन्मीलित
नयनों में बन्दी
कर लेना÷उस
स्वप्न भृमर को
मन में क्यों अवसाद भरा है ।

कानपुर