• २०८१ मंसिर १७ सोमबार

बापुजी ! म्हैं आपकै आदर्शां सूं भीज्यो रेऊं

बसन्त चौधरी

किनैं खोगी कलियांकी हांसी,
क्यूं उदास है फूल
खिलणो ई छोड़कर
के हुग्यो इसो धरती कै आंगणियै में आज ?
क्यूं झांक रैया है तारा गण नीचै ?
क्यूं टपक रयो है अकास, आंसुवा में खुद नै बहाकर ।

क्यूं धुवों–धुवों होग्यो अकास ?
विरहमय विषाद सूं ब्रह्माण्ड ई होगो व्याप्त
देखतां देखतां ई म्हारो अस्तित्व ई
बालुकी जियां किनारै में बिखरग्यो है आज ।
रुंख हा, हर्या हा, शीतल हा,
आप झिलमिलाती खुशहाली साक्षात हा,
पण आज म्हैं किणनै के सुनाऊं म्हारो दुःख !
म्हारी आंख्यां आंसुवां सूं भरभर आवै है !
तावडो लपटां फेंकै है, म्हैं अ‍ेकलो ई मरुस्थलकै रास्तमें चाल रयो हूं
पण जद मैं चिलचिलाती धूप में बी, कोनीं बल्यो जणा चकरागो,
ओहो ! म्हैं तो आपकी स्मृति ओढ राखी हूं ।
बै छणमें मेरै सामनै होगो हो श्रीहीन, कुबेर कै भंडार को हीरो बी,
म्हैं आपकै ललाटको पसीनो याद करकै खो जाऊं हूं ।

आप हा तो, मनैं आंट ही,
जीवन हो, पण आप हब कोनीं तो,
म्हैं कियां बोलूं
जीवन जीवन मांय सूं ई कठै खोग्यो है
देखतादेखतांई राख राख होग्यो है
म्हारो अकास ।
पण आपकै आदर्श की आभा, म्हां सूं दूर कोनीं जा सकै ।

हिरदै मांय जद ताई रेवैगो, आपकी शान्त छवी को वास
बिना सांस बी म्हैं जी सकूं हूं, ओ मेरो है दृढ विस्वास
म्हारा बापूजी ! इण अकास सूं बी केई गुणा असीम
आपकी श्रद्घा सूं सुसज्जित है, मेरै भीतरको मेरो अकास ।

(बसन्त चौधरीको कवितासंग्रह ‘वसन्त’ बाट साभार)