• २०८१ असोज २९ मङ्गलबार

रीत और प्रीत की निश्छल गाथा, “रे मन..चल सपनों के गाँव”

डॉ. श्वेता दीप्ति 

डॉ. श्वेता दीप्ति 

“ढाई अक्षर प्रेम का पढे सो पंडित होय” आखिर प्रेम क्या है ? किसी को पाना या खुद को खो देना ? एक बंधन या फिर मुक्ति ? जीवन या फिर जहर ? इसके बारे में सबकी अपनी अपनी राय हो सकती हैं,लेकिन वास्तव में प्रेम क्या है ? वो जहाँ हम खुद को खो देते है. या वो जहाँ हम खुद को खोकर सब कुछ पा लेते हैं ?

मूल रूप से प्रेम का मतलब है कि कोई और आपसे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हो चुका है । यह दुखदायी भी हो सकता है, क्योंकि इससे आपके अस्तित्व को खतरा है । आपके पास जो भी है, आप उसे प्रेम में खो देते हैं । जीवन में आप जो भी करना चाहते हैं, वह नहीं कर सकते । बहुत सारी अड़चनें हैं, लेकिन साथ ही यह आपको अपने अंदर खींचता चला जाता है । यह एक मीठा जहर है, बेहद मीठा जहर। यह खुद को मिटा देने वाली स्थिति है।

अगर आप खुद को नहीं मिटाते, तो आप कभी प्रेम को जान ही नहीं पाएंगे ।

प्राचीन ग्रीकों ने चार तरह के प्यार को पहचाना है : रिश्तेदारी, दोस्ती, रोमानी इच्छा और दिव्य प्रेम । प्रस्तुत काव्य संग्रह में हमें दिव्य प्रेम की अनुभूति होती है । प्यार को अक्सर वासना के साथ तुलना की जाती है और पारस्परिक संबध के तौर पर रोमानी अधिस्वर के साथ तोला जाता है, प्यार दोस्ती यानी पक्की दोस्ती से भी तोला जाता हैं । आम तौर पर प्यार एक एहसास है जो एक इन्सान दूसरे इन्सान के प्रति महसूस करता है । सौन्दर्य मनुष्य के व्यक्तित्व को प्रभावित करता है, और प्रेम उस सौन्दर्य में समाया रहता है । प्रेम में आसक्ति होती है । यदि आसक्ति न हो तो प्रेम प्रेम न रहकर केवल भक्ति हो जाती है । प्रेम मोह और भक्ति के बीच की अवस्था है । मेरे हाथों में एक मासूम, निश्चल और प्यारी सी कवयित्री ममता शर्मा का काव्य संग्रह ‘रे मन…चल सपनों के गाँव’ है । इस सपनों के गाँव के सफर में जो दिखा वह है प्रेम, पाक और निश्चल प्रेम जहाँ यह लगा कि सचमुच प्रेम मोह और भक्ति के बीच की अवस्था है …
कान्हा ज्यों ही तुझको पाया
इस जीवन को जीना आया
धन से मिला न बल से ही तू
मिलता मन निश्चल से ही तू
प्रेम नाम का सुमिरन करके
ढाई आखर में दुहराया ।

सीधी सहज सी भाषा और प्रेम के गूढ रहस्य को सुन्दरता के साथ व्याख्यायित कर गई । कबीर ने भी तो यही कहा था ‘प्रेम ना बाडी उपजै प्रेम ना हाट बिकाय’ । कोई मोल नहीं है इस भाव का और यह अनमोल भाव ‘अँचल’ की कविताओं में यत्र तत्र बिखरे पड़े हैं । जहाँ चाहो ढूँढ लो प्रेम जरूर मिलेगा । ये और बात है कि प्रेम के साथ बेचैनी भी है, इंतजार भी है, दर्द भी है और लबों पे शिकायत भी है ।
कभी तो दिल यह कहता है कि
जब जल भरकर नीलगगन में टहले बादल
स्वाति बूँद पीकर मस्ताए चातक पागल
पावस जल में घ्लकर झूमें गाए माटी
और निभाए मस्त मयूरी निज परिपाटी
इतना सिर्फ निवेदन मेरा
तब तुम आ जाना हे प्रियतम ।

मेघाच्छादित आकाश हो, बारिश की बूँदों से सराबोर धरा हो तो मन क्यों ना किसी अपने की आस कर बैठेगा ? आकाश से टपकती बूँदों के साथ भला प्यासा मन कब तक प्यासा रहेगा उसे तो प्रियतम की तलाश होगी ही । किन्तु जब ‘अँचल’ की लेखनी यह उकेरती है कि
चाहती तो मैं तुम्हारा बाहरी श्रृंगार लिखती
सेविका खुद को, तुम्हें गोविंद का अवतार लिखती

तो यह समझ में आता है कि यहाँ प्रेम में भक्ति है, मोह है और उस असीम में समा जाने की चाहत है जिस गोविंद के प्रति वो निवेदित है—
धूल समझ मुझको छूकर पावन कर दे
तुझमें रम जाऊँ प्रियतम ऐसा वर दे
तेरे संकेतों में मिलूँ सदा मैं ही
जो मुझ पर हो तेरा वो अधिकार बनूँ ।

बहुत सामान्य सी हसरत है ये जहाँ प्यार का अधिकार खोजना बनता है । यहीं शिकायत भी सामने आ जाती है—
मेरा तन–मन क्यों जलता है, तुमको क्या
किसके लिए प्यार पलता है, तुमको क्या
रहो जागरण में तुम खुश, मैं सपनों में
किसे पराया कहूँ, कहो तो अपनों में
जिसका वरण किया, तुम देख ना पाओगे
प्रण है अटल न टाले टलता, तुमको क्या,

चाहत भी है, शिकायत भी है और खुद को खो देने की जिद भी है बस यही तो प्यार है । जहाँ मिलन के विरह में बदल जाने पर भी उससे निकलने को दिल नहीं करता । बस खुशी और गम को साथ लेकर चलना ही मन को भाता है जहान बदल जाए पर अपना संसार नहीं बदले—
मिलन बदल कर विरह हुआ, धड़कन का ज्वार नहीं बदला
हम बदले हैं सच मानो अपना संसार नहीं बदला ।

पर एक दर्द भी साथ साथ चलता है । जब आपके आस पास बदलते हुए चेहरे हों, अपनों के नाम पर बिखरते रिश्ते हों तो दिल में चुभन तो होती है,
जिन्हें रूह समझा था हमने, उनमें जिस्म मिला केवल
भीतर जज्बे शून्य मिले, चेहरे पर झूठ खिला केवल ।

आज हर ओर वो चेहरे हैं जिनका सच सामने नहीं आता । एक चेहरे पर कई चेहरे लगे होते हैं । जिन्हें आसानी से समझ पाना या जान पाना मुश्किल होता है ।

प्यार कभी शर्तों पर नहीं किया जाता, ना ही उसे मापने का कोई पैमाना होता है प्यार तो बस प्यार है, खालिश अहसास—
जिसका कोई पैमाना हो, उसको प्यार नहीं कहते
जो शर्तों के वश में हो उसको इकरार नहीं कहते ।

कवयित्री ने प्यार के साथ साथ प्रकृति का भी सुन्दर वर्णन किया है । प्रियतम बसंत में प्रकृति का मनोहर रूप उभर कर आया है । सजीव चित्रण के बीच स्वयं सृष्टि जागृत हो गई है—
पवन सुहाना, सूर्य गगन से तम को दूर भगाता है
निर्मल जल अमृत सम हो जन जन की प्यास बुझाता है
सरसों के पौधों पर पीत पताका सी लहराती जब
तभी धरा के आँचल में प्रियतम बसंत आ जाता है…।

अँचल की कविताओं में जीवन के हर रंग को जगह मिली है । शब्दों का चयन और उसका गुम्फन दोनों ही अद्भुत हैं । एक रागात्मक अभिव्यक्ति इनकी रचनाओं में है जो सहजता से पाठक को सम्मोहित करता है और पढने के लिए विवश भी करता है । दोहे तो कमाल के हैं बस ऐसा लगता है जैसे शब्द बह रहे हों और दो पंक्तियों में बहा ले जाने की पूरी क्षमता समेटे हुए हों —
नकली तो बह जाएगा, असल रंग दे डाल
ओ मेरे मन ! प्रेम का, मुझ पर रंग उछाल ।
सीधी सहज शब्दों में प्रेम को पूरी तरह स्वयं में समा लेने की कोशिश है रे मन… चल सपनों के गाँव में । आपकी बयालिस गीतों में जीवन का हर रंग छलका पड़ा है जिसे चाहो तो समेट लो और जीवन रस भरपूर पी लो । अपना राजस्थान नामक कविता में तो राजस्थान के इतिहास को ही सामने रख दिया है । एक अद्भुत कला है ये जिसमें आप समर्थ हैं । आपकी रचनात्मकता निखरती रहे और साहित्य समृद्ध होता रहे और साहित्य पिपाशुओं की प्यास बुझती रहे । अनेक अनेक शुभकामनाएँ ।