• २०८१ मंसिर १७ सोमबार

नेपाल के लिए रेणु

डा.श्वेता दीप्ति

डा.श्वेता दीप्ति

चेखव ने कहा था, ‘कुछ लोग जीवन में बहुत भोगते सहते हैं— ऐसे आदमी ऊपर से बहुत हल्के और हँसमुख देते हैं । वे अपनी पीड़ा दूसरों पर नहीं थोपते, क्योंकि उनकी शालीनता उन्हें अपनी पीड़ा का प्रदर्शन करने से रोकती है ।’ रेणु ऐसे ही शालीन व्यक्ति थे । पता नहीं जमीन की कौन सी गहराई से उनका हल्कापन उभर आता था, यातना की कितनी परतों को फोड़कर उनकी मुस्कुराहट में बिखर जाता था । उनके लम्बे बाल, एक संक्षिप्त और सहज मुस्कान जो अभिजात्य सौजन्य से भीगी रहती थी । यह था सीधे शब्दों में रेणु का व्यक्तित्व । किन्तु सच तो यह है कि रेणु के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को कोई भी और किसी की भी लेखनी पूर्ण परिभाषित नहीं कर सकती ।

मैं कोशी क्षेत्र की हूँ, यानि पूर्णिया, सहरसा, फारबिसगंज, मधेपुरा इन शहरों से गुजरते हुए मेरा बचपन, मेरी युवावस्था गुजरी । जब भी औराही हिंगना या रेणु ग्राम से होकर गुजरने का अवसर मिला तो यूँ लगा कि कोशी की मिट्टी की वही सोंधी खुशबु मुझे छूकर गुजर गई है, जिस सोंधी खुशबु को रेणु की कृतियों ने हिन्दी साहित्य के जगत में ही नहीं, विश्व पटल पर बिखेर दिया है और आज भी उसकी सान्दर्भिकता है, आज भी साहित्य जगत उस खुशबु से सराबोर है । नेपाल और भारत का सम्बन्ध सदियों का है और आत्मीयता का है । अपने सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक धरातल पर दोनों देश समान रूप से देखे जा सकते हैं । जब नेपाल वास का आरम्भ हुआ तो मैं अनभिज्ञ थी यहाँ के परिवेश से । अपनी मिट्टी से अलग होने का दुख था मुझे । हिन्दी साहित्य की छात्रा थी मैं, सहज ही इससे मेरा लगाव और जुड़ाव था । एक बार तो लगा मैं कट गई किन्तु जैसे–जैसे यहाँ से परिचित हुई और भारतीय साहित्य और साहित्यकारों के प्रति यहाँ की धारणा को जाना तो एक गौरवमयी और सुखद अनभूति का अहसास हुआ । इसी सन्दर्भ में यह भी जानने का अवसर मिला कि, नेपाल के लिए रेणु और रेणु के लिए नेपाल क्या मायने रखता है । रेणु का नाम नेपाल के राजनीतिक और साहित्यिक दोनों ही क्षेत्रों में स्पृहणीय और अविस्मरणीय है । रेणु ने नेपाल के सौ वर्षों के क्रुर तानाशाही राणाशासन के विरुद्ध निर्णायक लड़ाई में स्वयं भाग लेकर और नेपाली क्रान्ति कथा लिखकर यहाँ के पिछले स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास को अमर बना दिया है । साहित्यकार के रूप में नेपाल में उनकी प्रतिष्ठा उतनी ही मजबूत है, जितनी कि उनका नेपाली मुक्ति युद्ध के सहयोगी सिपाही के रूप में है । रेणु का नेपाल से जो आत्मीय सम्बन्ध है, वह तो इस बात से भी जाहिर होता है कि फणीश्वर नाथ आज जिस रेणु नाम से प्रसिद्ध हैं वह भी नेपाल का ही दिया हुआ है । जिसकी चर्चा उन्होंने स्वयं अपने संस्मरण में किया है कि उन्हें रेणु नाम पिताजी अर्थात् उनके दोस्त पिता(बाबुजी के मित्र) श्रीकृष्ण प्रसाद कोइराला ने दिया था —
उन्होंने मुझसे पूछा–‘घर में किस नाम से पुकारते हैं तुम्हें ?’

‘मैं क्या कहता ∕ चूँकि जिस साल मेरा जन्म हुआ था, उसी वर्ष एक बड़े फौजदारी मुकदमे के सिलसिले में परिवार में पहली बार ऋण हुआ । इसलिए दुलार से मेरी दादी और माँ रिनवा(ऋणवा) कहती थी । बाबू जी तमसाए हुए होते हैं तभी इस नाम से पुकारते हैं । गाँव वाले यथायोग्य —रनवा, रुनु, रुनुक, रीनू कहते । ….यदि पहले फौजदारी होती तो मेरा नाम निश्चय ही फौजदारी पड़ता ।’

मैंने यथासाध्य नाम को सुधार कर कहा– ‘राणा कहते हैं ।’

आसपास सभी एकत्रित हँसे । मेरे मित्र तारिणी ने कहा– ‘यह राणाशाही नहीं चलेगी यहाँ ।’

पिताजी बोले– ‘लो, यह रेणु हो गया ।’

और आज यही रेणु रह गया है । नेपाल से रेणु का क्या और कैसा रिश्ता रहा है यह रेणु ने अपने संस्मरणात्मक लेख में इतनी सरसता के साथ उल्लेख किया है कि यह लेख न होकर कहानी का रस प्रदान करती है । नेपाल को उन्होंने अपनी सानो आमा (छोटी माँ) कहा है और बहुत ही आदरणीय भाव से कहते हैं कि– ‘जब कभी नेपाल की धरती पर पाँव रखता हूँ, पहले झुककर एक चुटकी धूल सिर पर डाल लेता हूँ । रोम रोम बज उठते हैं—स्मृतियाँ जग पड़ती हैं । …जय नेपाल ∕ नेपाल मेरी सानो आमा ।’

विराटनगर में स्व. कृष्णप्रसाद कोइराला, जो नेपाल के गाँधी माने जाते हैं, जिन्हें रेणु पिताजी कहते थे, उन्होंने एक स्कूल खोला था । जो नेपाल तराई का शायद सबसे पहला स्कूल था । उसी स्कूल में रेणु का दाखिला हुआ और प्रारम्भिक शिक्षा उन्होंने वही प्राप्त की । उनके छोटे पुत्र तारिणीप्रसाद से रेणु की बहुत जमती थी । दोनों की रुचि भी समान थी । दोनों साहित्य के रसिक थे । कोइराला परिवार के सदस्य के रूप में ही रेणु को जाना जाता था । रेणु स्वयं लिखते हैं कि– ‘इसके बाद, कभी लगातार तीन महीने तक अपने गाँव में नहीं रहा । आज तक नहीं । १९३५ से १९४२ तक पिताजी के सहज स्नेह का अधिकांश हिस्सा मुझे मिलता रहा । आश्रम तुल्य कोइराला निवास में मेरी सारी महात्वाकांक्षा को सहारा मिला । साहित्य, राजनीति और कला की त्रिवेणी कोइराला निवास । जहाँ भी रहा मन विराटनगर पर टंगा रहा । बाहर से जब लौटता सीधे विराटनगर पहुँचता । मेरे इस व्यवहार से मेरे बाबुजी, माँ दुखित होते, कभी कभी ।’

रेणु केवल कोइराला परिवार के सदस्य के रूप में नहीं थे बल्कि उनके व्यक्तित्व के विकास में भी कोइराला परिवार की बहुत बड़ी भूमिका रही । नेपाल की राजनीति और नेपाल के साहित्य में एक अद्वितीय नाम है विश्वेश्वरप्रसाद कोइराला, जिनके साहित्यिक सहयोगी के तौर पर रेणु को जाना जाता है । वी.पी की कई कहानियों का हिन्दी अनुवाद रेणु ने किया । स्वयं वी.पी मानते हैं कि रेणु उनका छोटा और आत्मीय भाई था । ‘नेपाली क्रान्ति कथा’ में कहते है– ‘सबसे बढ़कर रेणु मेरा छोटा भाई था । उसकी क्रान्तिकारी प्रवृत्ति और अन्याय तथा दमन का विरोध करने की उग्रता मेरी ही जैसी थी । उसके विचार मेरे अपने जैसे लगते थे । वास्तव में वह मेरा ही था ।’

नेपाल में प्रजातन्त्र की लड़ाई में रेणु ने बढ़–चढ़ कर हिस्सा लिया । राणा शासन को अपदस्थ करने हेतु नेपाली काँग्रेस ने १९५० में जब क्रान्ति छेड़ी तो उसमें रेणु भी शामिल थे । उस समय उन्होंने नेपाली काँग्रेस के प्रचार प्रसार तथा विराटनगर से स्थापित एक गैरकानूनी आकाशवाणी के संगठन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की । वी.पी कहते हैं– ‘मेरे लिए रेणु मेरा नहीं है । वह मेरे हृदय में जीवित है, हम प्रजातंत्र के सारे नेपाली या भारतीय सिपाहियों के हृदय में जीवित है । रेणु मर गया । लेकिन रेणु जिन्दा है, अपनी जिन्दादिली के लिए, अपने क्रान्तिकारी विचारों के लिए, तानाशाही के विरुद्ध संघर्ष के लिए, अपनी जिजीविषा के लिए..।’
(नेपाली क्रान्तिकथा)

रेणु के तीन संस्मरणों — ‘एक कलाकार परिवार (बालकृष्ण सम)’, ‘दिलबहादुर दाज्यु’ और ‘मातृकाप्रसाद कोइराला के नाम से’ के अध्ययन से नेपाल के साथ उनके आत्मीय सम्बन्धों का पता चलता है । दिलबहादुर श्रेष्ठ का जीवटयुक्त निडर व्यक्तित्व, बालकृष्ण सम का बहुआयामी सौम्य साहित्यिक व्यक्तित्व और मातृकाप्रसाद कोइराला के उदारमना व्यक्तित्व ने रेणु के साथ अपनत्व के सूत्र को काफी दृढ़ता के साथ जोड़ा था । किन्तु यह दुर्भाग्य ही रहा कि नेपाल के साथ उनके इस आत्मीय रिश्ते को नेपाल की राजनीतिक परिस्थितियों ने ठेस भी पहुँचाया । जिस व्यक्ति ने नेपाल को अपनी छोटी माँ माना उसे ही यहाँ तिरस्कार भी झेलना पड़ा । इसकी चर्चा स्वयं रेणु ने भी की है । भारत और नेपाल की पारम्परिक मैत्री के बीच विभेद की क्रियाकलाप के प्रयास तथा इसी बहाने अपने ही देश के तराईवासी मधेशियों के प्रति उपेक्षा एवं असामान्य व्यवहार का अवांछित दृश्य जब उन्होंने देखा तो उन्हें जो मानसिक पीड़ा हुई उसे भी उन्होंने कई बार जाहिर किया है– ‘आज भले ही नेपाल की राजनैतिक पार्टियाँ उस जीत का सारा सेहरा अपने अपने सर बाँधने की कोशिश करें । लेकिन जो कोई भी ईमानदार इतिहासकार होगा, यह जरुर लिखेगा कि राणाशाही को आखिरी चोट देने में भारत का दिल दिमाग काम कर रहा था ।’

उन्हें इस बात की भी तकलीफ थी कि, ‘काश ∕ कि हम इतना जान पाते कि हम जिस का साथ दे रहे हैं वही हमें दगाबाज और मक्कार कहेगा ।’

किन्तु यह भी अकाट्य सत्य है कि रेणु, भारत और नेपाल की परम्परागत बन्धुता और आत्मीयता के साकार प्रतीक थे । उन्होंने इस देश को सदा सानो आमा (छोटी माँ) के ही रूप में देखा और हमेशा नेपाल की मिट्टी के प्रति श्रद्धानवत और नतमस्तक ही रहे । रेणु के व्यक्तित्व निर्माण में यदि नेपाल की भूमिका रही तो यह भी सच है कि रेणु ने हमेशा नेपाल की तत्कालीन परिस्थितियों में अपनी सक्रिय भूमिका का निर्वाह किया । रेणु के नेपाल सन्दर्भ का अगर आकलन किया जाय तो यह सहज ही कहा जा सकता है कि रेणु का नेपाल सम्बन्ध भावनाओं का, स्नेह का, प्रेम और आदर का, विश्वास और अन्तर्मन की निष्ठा का उत्कृष्ट दस्तावेज है । रागात्मकता और एकात्मकता के इस धरातल पर आकर देशों की सीमाएँ मिट जाती हैं और बाकी रह जाता है केवल मानवीय सम्बन्धों का विस्तृत और असीम संसार । वह संसार जिसकी कोई सीमा नहीं है । अगर कुछ है तो वह है निश्चल और अगाध स्नेह का संसार जहाँ सिर्फ मानवीयता और नैतिकता की धरातल है और इस धरातल पर रेणु नेपाल की मिट्टी के सदा अपने थे, अपने हैं और रहेंगे ।