• २०८१ बैशाख ७ शुक्रबार

उम्मीदों की छांव

सुरभि मिश्रा

सुरभि मिश्रा

बंजर है रात सारी,
सूखी हुई शाम भी,
तिनका तिनका टूट रही,
वो उम्मीदों की छांव भी,
बेवजह मिलते थे हाथ,
बेअसर है अब घाव भी ।
मिलती थी खुशियां सब,
अब बिरह डूबी शाम सी,
तिनका तिनका टूट रही,
वो उम्मीदों की छांव भी ।

तरंग थे जैसे समंदर के,
शान्त जैसे साहिल भी,
उम्मीद खेता बस नाविक,
वक्त पर टूटी पतवार भी,
बिखरे बिसरे सब थे,
मिलती है तिनके से आस भी,
तिनका तिनका टूट रही,
वो उम्मीदों की छांव भी ।

टूटी लाठी, ऐनक टूटा,
बंद है पन्नों की आवाज भी,
छिपी है रौशनी स्याह सी,
चुप है घड़ी की आवाज भी,
चुप है सब, चलित बस मन,
छिप रहे ख्वाबों के शाम भी,
तिनका तिनका टूट रही,
वो उम्मीदों की छांव भी।

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(स्वतंत्र लेखन, कपिलवस्तु, नेपाल)
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